भारत के दोनों सदनों से नागरिकता संशोधन बिल पास होने और फिर उसके क़ानून की शक्ल लेने के बाद से ही देशभर में जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. इस क़ानून को मुस्लिम विरोधी बताया जा रहा है.
इसके साथ ही राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी के लागू होने की आशंकाओं का हवाला देते हुए भी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. इन विरोध प्रदर्शनों की आवाज़ तब और तेज़ होने लगी जब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर को कैबिनेट की मंज़ूरी मिल गई. कहा जाने लगा कि एनपीआर, एनआरसी की तरफ़ बढ़ाया जाने वाला पहला क़दम है.
देश भर में कई जगह रैलियां निकाली जा रही हैं, कई जगहों पर हिंसक प्रदर्शन भी हुए हैं. इन विरोध प्रदर्शनों में कहीं राजनीतिक दल शामिल हो रहे हैं तो कहीं सिविल सोसाइटी के लोग बाहर निकलकर इनका विरोध कर रहे हैं.
हालांकि बीजेपी लगातार इस बात को दोहरा रही है कि वह कोई नया क़ानून लेकर नहीं आई है, ये तमाम बिल कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ही लेकर आई थी.
एक साक्षात्कार में गृह मंत्री अमित शाह यह कहते हुए सुने जा सकते हैं, ”एनआरसी कौन लेकर आया? वही जो आज इसका विरोध कर रहे हैं. मैं कांग्रेस अध्यक्ष और दूसरे नेताओं से यह पूछना चाहता हूं कि एनआरसी कौन लाया था?” अमित शाह कांग्रेस से यह सवाल भी करते हैं, ”क्या आपने इन क़ानूनों को शो-केस में रखने के लिए बनाया था?”
चिदंबरम और अमित शाह के कौन–कौन से फ़ैसले एक जैसे?
दरअसल, यूपीए के कार्यकाल के दौरान जब पी चिदंबरम देश के गृह मंत्री थे उस समय भी एनआरसी और एनपीआर के मुद्दों ने ज़ोर पकड़ा था, क्या उस वक़्त इस मुद्दे पर इतना शोर मचा था जितना अब हो रहा है.
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं कि देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे आमतौर पर सरकार-दर-सरकार आगे बढ़ते रहते हैं. इन्हीं में एनआरसी और एनपीआर के मु्द्दे भी शामिल हैं. जब कांग्रेस के वक़्त इन मुद्दों को उठाया गया तब इसका इतना विरोध नहीं हुआ था.
वो कहते हैं, ”नागरिकों का एक जनसंख्या रजिस्टर बनाने की बात कारगिल युद्ध के बाद रखी गई थी, उस समय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. इसके बाद साल 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने उस समय भी नागरिकों के रजिस्टर की बात आई. साथ ही नागरिकता संशोधन क़ानून में धारा 14 ए भी जोड़ी गई.”
कांग्रेस सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में भी इस पर काम जारी रखा और तब पी चिदंबरम के गृह मंत्री रहते हुए कुछ जगहों पर इसका पायलट प्रोजेक्ट भी चलाया गया. साल 2009 से 2012 के बीच कुछ जगहों पर एनपीआर के तहत पहचान पत्र भी दिए गए. साल 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को पी चिदंबरम ने पहला पहचान पत्र भी भेंट किया था.
मौजूदा वक़्त में जिस एनआरसी के देशभर में लागू होने की बात गृह मंत्री अमित शाह कर रहे हैं. दरअसल इसकी शुरुआत भी कांग्रेस के कार्यकाल के वक़्त ही बताई जाती है.
बीजेपी की नीयत की वजह से विरोध
कांग्रेस के वक़्त सहमति और अब उन्हीं मुद्दों पर विरोध के सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि दरअसल विरोध बीजेपी की नीयत की वजह से हो रहा है.
नीरजा कहती हैं, ”इस सरकार के कार्यकाल में मॉब लिंचिंग के कई मामले सामने आए, इन अपराधों के दोषियों का सम्मान करने की ख़बरें भी मिली, फिर तीन तलाक़ बिल आया. उसके बाद मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को हटाने का क़दम उठाया गया. इन तमाम कामों को एक कड़ी में जोड़ा जाए तो उसके बाद नागरिकतका संशोधन क़ानून और एनआरसी और फिर एनआरपी लाना बीजेपी की नीयत पर सवाल खड़े करता है, यही उनके ख़िलाफ़ हो रहे विरोध की वजह भी है.”
वहीं प्रदीप सिंह कहते हैं कि दरअसल मोदी सरकार के ख़िलाफ़ लोगों के मन में पहले से ही एक धारणा बनी हुई है, यह विरोध उसी की वजह से हो रहा है. विपक्षी दलों के पास सरकार का विरोध करने के लिए कोई पुख्ता मुद्दे नहीं है इसलिए इन मुद्दों को उठाया जा रहा है.
वो यह भी बताते हैं कि एनआरसी कोई नया नहीं है कांग्रेस के वक़्त इसका नाम नेशनल रजिस्टर ऑफ़ इंडियन सिटिजंस (एनआरआईसी) था.
कांग्रेस काल में गृह मंत्री रहे पी चिदंबरम इस संबंध में अपने तत्कालीन फ़ैसलों का बचाव करते हैं और कहते हैं कि जो फ़ैसले इस वक़्त मोदी सरकार ले रही है, वह उनके कार्यकाल जैसे नहीं हैं.
पी चिदंबरम ने इस बारे में कई ट्वीट किए हैं जिनमें वो लिखते हैं, ”भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार का एक बड़ा और अधिक ख़तरनाक एजेंडा है और यही कारण है कि उनके द्वारा अनुमोदित एनपीआर शब्दों के साथ-साथ संदर्भ में भी साल 2010 के एनपीआर से बहुत अलग और ख़तरनाक है.”
बीजेपी ने पी चिदंबरम के उस वीडियो को भी जारी किया जिसमें वो गृह मंत्री रहते हुए एनपीआर की बात कर रहे हैं. इस पर पी चिदंबरम ने अपनी तरफ़ से यह सफ़ाई दी है कि उस वीडियो में वो सामान्य निवासियों की गणना करने की बात कर रहे थे. उनका ज़ोर रेजिडेंसी पर था ना कि नागरिकता पर.
‘वक़्त के साथ होता है बदलाव’
मौजूदा सरकार की आलोचना करने वालों का कहना है कि यह सरकार एनपीआर के डेटा के ज़रिए ही एनआरसी की तरफ़ बढ़ेगी.
इसके समर्थन में उनका कहना है कि यूपीए सरकार के वक़्त जो एनपीआर लाया गया था उसमें सामान्य जानकारियां मांगी गई थी जबकि इस बार माता-पिता के जन्मस्थान की जानकारी जैसी बातें पूछी गई हैं.
इस पर प्रदीप सिंह कहते हैं कि यह कोई बड़ा तर्क नहीं है, क्योंकि वक़्त के साथ सरकारें डेटा अपडेट करने के लिए जानकारियां भी बदलती हैं. वो कहते हैं कि जब जनगणना की प्रक्रिया शुरू हुई तब मोबाइल फ़ोन नहीं थे लेकिन बाद में मोबाइल फ़ोन होने लगे तो लोगों के नंबर भी मांगे जाने लगे. इसलिए यह बोलना कि अब नए सवाल जोड़े गए हैं, यह बेबुनियाद है.
लेकिन दूसरी तरफ़ नीरजा चौधरी कहती हैं कि मौजूदा सरकार ने इस पूरे मामले पर एक असमंजस की स्थिति ख़ुद ही बनाई हुई है. वो कहती हैं, ”प्रधानमंत्री रैली में कहते हैं कि एनआरसी पर कोई चर्चा नहीं हुई वहीं गृह मंत्री सदन में कहते हैं कि पूरे देश में एनआरसी आ रहा है. गृह मंत्री इसकी क्रॉनोलोजी भी समझाते हैं. इसके बाद एनआरपी को एनआरसी से अलग बताया जाता है जबकि सरकारी दस्तावेज़ों में इसे एनआरसी का ही एक क़दम बताया जाता है. यही वजह है कि इन तमाम मुद्दों को जोड़कर देखा जा रहा है.”
माओवादी अभियान पर नकेल
एनपीआर, एनआरसी और नागरिकता संशोधन क़ानून के अलावा और भी कई मुद्दे हैं जिन पर पी चिदंबरम और अमित शाह की कार्यशैली मिलती हुई दिखती है. जैसे माओवादी और नक्सली इलाक़ों पर कार्रवाई और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ व्यवहार.
अगर पी चिदंबरम के गृह मंत्री काल को याद किया जाए तो उस समय नक्सली इलाक़ों में बड़े स्तर पर ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाया गया था. सरकार ने इसका मक़सद नक्सली हमलों को रोकना और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना बताया था.
हालांकि ऐसी भी कई रिपोर्टें सामने आईं कि जिनमें इस ऑपरेशन के दौरान सामान्य ग्रामीणों को भी निशाना बनाए जाने की बातें कही गईं. प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय ने आउटलुक पत्रिका के लिए साल 2009 में एक लेख लिखा था जिसमें वो ऑपरेशन ग्रीन हंट पर कई तीखे सवाल उठाती हैं.
उस लेख में वो लिखती हैं कि ऑपरेशन ग्रीन हंट के दौरान जिन लोगों को मारा गया उनकी पहचान कैसे की जा सकती है कि मारे गए लोग माओवादी ही थे?
इसी दौरान छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन की गिरफ़्तारी की चर्चा भी ख़ूब हुई थी. हालांकि जिस समय उनकी गिरफ़्तारी हुई तब छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार थी और मुख्यमंत्री रमन सिंह थे. लेकिन केंद्र में यूपीए की सरकार ही थी और गृह मंत्री का पद पी चिदंबरम के पास था.
बिनायक सेन पर देशद्रोह का आरोप लगा था और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा भी सुनाई गई थी. इस दौरान सिविल सोसाइटी की तरफ़ से छत्तीसगढ़ सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार पर भी सवाल उठाए गए थे कि उन्होंने बिनायक सेन के मामले में चुप्पी क्यों साधे रखी.
लगभग इसी तरह से बीजेपी सरकार पर भी आरोप लगाए जाते हैं कि महाराष्ट्र में हुए भीमा कोरेगांव मामले में उन्होंने कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को हिरासत में डलवाने का काम किया.
अगस्त 2018 में पुणे पुलिस ने गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज, वरवरा राव, अरुण फ़रेरा और वरनॉन गोन्ज़ाल्विस को गिरफ़्तार किया था. ये सभी लोग जाने-माने सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.
जब ये गिरफ्तारियां हुईं तो पी चिदंबरम ने ट्वीट किया था कि वो इन गिरफ़्तारियों की निंदा करते हैं.
इस ट्वीट के जवाब में वामपंथी नेता कविता कृष्णन ने ट्वीट किया था, ”क्या अब आप बिनायक सेन, सोनी सूरी की गिरफ़्तारियों और बस्तर में कई आदिवासियों की गिरफ़्तारियों और हत्याओं के मामलों पर एक गृह मंत्री के तौर पर और आपकी सरकार की निष्क्रियता पर भी माफ़ी मांगते है. अगर हां तो आपको यह बात भी बोलनी चाहिए. बिना जवाबदेही के ऐसे विचार ठीक नहीं हैं.”
‘बीजेपी विरोध में हो रहा है प्रदर्शन’
अगर अमित शाह उन्हीं फ़ैसलों को आगे बढ़ा रहे हैं जिन्हें चिदंबरम भी गृह मंत्री रहते हुए ले चुके थे तो इस बार इतना विरोध क्यों?
इस पर प्रदीप सिंह कहते हैं, ”दरअसल यह सब बीजेपी विरोध में हो रहा है. विपक्ष को एक मुद्दा चाहिए था जिस पर वो सड़कों पर उतर सकें, वो तीन तलाक़ और अनुच्छेद 370 के मुद्दों पर वैसा माहौल नहीं बना सके लेकिन इस बार उन्हें लगता है कि वो इन क़ानूनों का विरोध कर सरकार को घेर लेंगे.”
प्रदीप सिंह कहते हैं कि जब आपकी पार्टी सरकार में रह चुकी होती है तो आपके पास विरोध करने के अधिक मौक़े नहीं रहते, इसलिए कांग्रेस के पास भी इन तमाम क़ाननों और फ़ैसलों पर विरोध करने का कोई अधिकार रहा नहीं है.
नीरजा चौधरी मानती हैं कि पी चिदंबरम के गृह मंत्री काल में ये तमाम मुद्दे आए थे, उस समय मीडिया जगत में चिदंबरम को ‘न्यूज़ एडिटर ऑफ़ मैनी चैनल्स’ कहा जाता था क्योंकि वो कई ख़बरों में अपनी दख़लअंदाज़ी करते थे.
लेकिन इन तमाम बातों के बीच नीरजा चौधरी कहती हैं कि अगर उस समय इन मुद्दों पर विरोध नहीं हुआ इसलिए अब भी विरोध नहीं होना चाहिए यह कोई तर्क नहीं होता. वो कहती हैं, ”उस समय बीजेपी प्रमुख विपक्षी दल थी सवाल उन पर भी है कि उन्होंने विरोध क्यों नहीं किया. और इस बार के विरोध प्रदर्शनों में सिर्फ़ राजनीतिक दल या मुस्लिम समुदाय ही शामिल नहीं है इनमें कॉलेजों के छात्र और वो युवा शामिल हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी को साल 2014 और 2019 में प्रधानमंत्री बनाया है.’