गुप्तकाल (चौथी से छठी शताब्दी) में मन्दिरों के निर्माण का उत्तरोत्तर विकास दृष्टिगोचर होता है। पहले लकड़ी के मन्दिर बनते थे या बनते होंगे लेकिन जल्दी ही भारत के अनेक स्थानों पर पत्थर और र्इंट से मन्दिर बनने लगे। 7वीं शताब्दि तक देश के आर्य संस्कृति वाले भागों में पत्थरों से मंदिरों का निर्माण होना पाया गया है। चौथी से छठी शताब्दी में गुप्तकाल में मन्दिरों का निर्माण बहुत द्रुत गति से हुआ। मूल रूप से हिन्दू मन्दिरों की शैली बौद्ध मन्दिरों से ली गयी होगी जैसा कि उस समय के पुराने मन्दिरो में मूर्तियों को मन्दिर के मध्य में रखा होना पाया गया है और जिनमें बौद्ध स्तूपों की भांति परिक्रमा मार्ग हुआ करता था।
वर्नामुत्तु मरियम्मन मंदिर तमिलनाडु के सबसे ब़डे जिले वेलुप्पुरम है। ये विश्व प्रसिद्ध ऑरोविले इंटरनेशनल टाउनशिप (सिटी ऑफ डॉन) के पास स्थति एक गांव इद्यांचवाडी में स्थित है। यहां हर साल ये अभिषेक किया जाता है। 8 दिनों तक चलने वाला त्योहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।
इस परंपरा के पीछे वजह यह है कि गांव वाले रोग से बचने के लिए इस परंपरा को सदियों से निभाते आ रहे हैं। खास बात ये है कि मंदिर की ट्रस्ट में शामिल तीन ब़डे लोगों पवित्र कंगन पहनकर पूरे दिन का व्रत रखते हैं। इसके बाद उनका मुंडन किया जाता है। मुंडन के बाद में देवताओं की तरह ही उन्हें भी पूजन स्थल पर बिठाया जाता और बाद में मंदिर के पुजारी उन तीनों को भगवान की तरह ही मान कर उनका 108 सामग्रियों से अभिषेक करते। इन 108 सामग्रियों में कई तरह के तेल, इत्र, विभूति, कुचले हुये फल, चंदन, कुमकुम, हल्दी आदि के अलावा मिर्च का (चिली) का लेप भी होता है। लाल र्मिच का लेप।
पहले तो तीनों को मिर्च का ये लेप खिलाया जाता और उसके बाद में ऊपर से लेकर नीचे तक इस लेप से उनका अभिषेक किया जाता। आखिर में उन्हें नीम के लेप से नहलाकर मंदिर के अंदर जाया जाता है। मंदिर के अंदर जाकर “धीमिति” का आयोजन होता है। जिसमें उन्हें जलते हुए कोयले पर चलाया जाता है । अभिषेक की ये परम्परा पिछले 85 वर्षों से होती आ रही है।