Home समाचार तीन तलाक़ क़ानून पर सवाल उठाने वाले कभी मुस्लिम महिलाओं की तकलीफ...

तीन तलाक़ क़ानून पर सवाल उठाने वाले कभी मुस्लिम महिलाओं की तकलीफ को नहीं समझ पाए..

74
0

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद तीन तलाक़ हो रहे थे, इसलिए जब तक समाज और ग़लत काम कर रहे मर्दों के दिमाग में क़ानून का डर नहीं आएगा, तब तक तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ चल रही मुहिम का कोई नतीजा नहीं निकलेगा.

तीन तलाक के खिलाफ लड़ाई कई दशकों से चल रही थी, अब जब तीन तलाक़ विधेयक पारित हो गया है, सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया है, लेकिन मैं स्पष्ट कर दूं कि हमारी मूल मांग यह थी कि एक विधिवत मुस्लिम पारिवारिक कानून होना चाहिए और वो कानून क़ुरान आधारित होना चाहिए और संविधान के जो बराबरी और इंसाफ के सिद्धांत हैं, उस पर भी खरा उतरे.

जैसा कि हम बार-बार कहते रहे हैं हम मानते हैं कि ऐसा पूरी तरह से संभव है क्योंकि कुरान में भी इंसाफ की बात है और संविधान में भी. फिर कुछ इस तरह की घटनाएं हुईं कि कुछ महिलाएं तीन तलाक की शिकायत लेकर कोर्ट पहुंचीं, हम भी पहुंचे और पूरा मामला ट्रिपल तलाक़ पर आ गया.

हालांकि हमारी मांग में ट्रिपल तलाक के साथ हलाला, बहुविवाह भी थे लेकिन उस समय जो संवैधानिक पीठ बनी उसने कहा हम केवल तीन तलाक का मुद्दा देखेंगे, तो इस तरह तीन तलाक के खिलाफ यह पूरा आंदोलन बन गया. तब हमने सोचा कि ठीक है कि अब इसी एक ही मामले को लेकर यह आंदोलन बन रहा है और एक तरह से यह पारिवारिक कानून की बात करें, तो सबसे बड़ा मसला यही है तो हमने भी इसी को आगे बढ़ाया.

कुरान आधारित मुस्लिम फैमिली लॉ बनाया जाए

आज की तारीख में भी मुस्लिम पारिवारिक कानून की मांग जारी ही है. लेकिन इतने सालों में जो हमें समझ में आया कि हमारा लोकतंत्र जिस तरह से काम करता है उसमें ज़रूरी नहीं है कि जिस तरह से हम पारिवारिक कानून की मांग कर रहे हैं, वो उसी तरह, उसी स्वरूप में उसी समय उन्हीं सारे प्रावधानों के साथ हमें मिलेगा.

हमने यही सोचा कि ट्रिपल तलाक मसला है और इस पर कानून लाया जा रहा है तो अच्छी ही बात है. धीरे-धीरे कदम उठाकर सारे ही मामले कवर हो जाएंगे. अब बात करें कानून की तो सरकार की तरफ से जो पहला ड्राफ्ट आया था, उसमें काफी सारी कमियां थीं.

उन्हें देखते हुए हमने सरकार के सामने तीन सुधारों की मांग रखी थी. पहला बिंदु यह था कि एफआईआर दर्ज करवाने का हक़ सिर्फ और सिर्फ पत्नी को होना चाहिए क्योंकि यह पति-पत्नी का आपसी मामला है.

दूसरा, यह कि यह जमानती और कंपाउंडेबल (क्षम्य) अपराध होना चाहिए क्योंकि हम ऐसा मानते हैं कि अगर पति-पत्नी के बीच बातचीत से मामला सुलझने की एक प्रतिशत भी संभावना है तो वो उस एक प्रतिशत मौका भी छोड़ना नहीं चाहिए. क़ुरानिक तरीका भी यही है कि सुधारने और सुलझाने की कोशिश करो.

कंपाउंडेबल इसलिए कि अगर आप एफआईआर कर देते हैं और सुलह हो जाती है या आपसी सहमति से तलाक लेते हैं तो केस वापस लेने का प्रावधान होना चाहिए. तीसरा, जब तक यह पूरी प्रक्रिया चलती है तब तक पत्नी को हक़ होना चाहिए कि जो उसका ससुराल या पति का घर है, उसे वहां रहने दिया जाए.

इसके बाद जब सरकार दूसरा ड्राफ्ट लाई, उसमें पूरी तरह से तो नहीं, करीब-करीब ये बातें मान ली गयीं. इस ड्राफ्ट में कहा गया कि एफआईआर या तो पत्नी कर सकती है या रक्त संबंधी, इस पर हमें ज़्यादा आपत्ति नहीं थी. जमानती और कंपाउंडेबल (क्षम्य) अपराध की शर्त भी मान ली गयी, लेकिन तीसरे बिंदु पर ध्यान नहीं दिया गया… तो हमने सोचा कि तीन में से दो मान ली गयी हैं तो ठीक है.

इस एक लड़ाई के बाद आज भी ध्येय यही है कि कुरान आधारित मुस्लिम फैमिली लॉ बनाया जाए. मुस्लिम औरतों से बात करके हमने उसका ड्राफ्ट बनाया हुआ है और आने वाले दिनों में हम उसी को लेकर आगे बढ़ेंगे.

अब तक हमारा सारा ध्यान, समय, मेहनत सब तीन तलाक मसले में ही जा रही थी, लेकिन पारिवारिक कानून की मांग अब भी वहीं है. हमारी सभी तरह की बैठकों में वह मुद्दा ज़रूर रहता है और आने वाले दिनों में हम उसको भी उठाने वाले हैं.

क्या विधेयक लाना भाजपा का एक राजनीतिक कदम है?

लगातार कहा जा रहा है कि यह विधेयक पारित करना भाजपा का एक राजनीतिक कदम है, जिसका मकसद मुस्लिम पुरुषों को किसी न किसी तरह जेल में पहुंचाना है. यह कहने में एक साधारण बात है, लेकिन यह बहुत पेंचीदा भी है. इसका पूरा परिप्रेक्ष्य बहुत जटिल है.

पहली बात तो ये कि भाजपा सरकार को भारत की पूरी जनता ने चुना है न कि मुस्लिम औरतों ने या बीएमएमए की औरतों ने. लोकतंत्र में कानून बनाने के लिए आपको सरकार के पास संसद के पास ही जाना होता है. पर्सनल लॉ बोर्ड के पास हम कभी जाएंगे नहीं, धार्मिक नेताओं के पास हम कभी जाएंगे नहीं.

दूसरी बात यह कि भाजपा सरकार तो केवल पांच सालों से सत्ता में आई है, हमारा आंदोलन तो उससे बहुत पहले का रहा है. खुलकर हम 2006-2007 से आंदोलन कर रहे हैं. ट्रिपल तलाक के खिलाफ हमने सार्वजनिक रूप से मांग की थी, जिसका मीडिया में अच्छा-खासा मीडिया कवरेज हुआ था.

दिसंबर 2012 में हमने तीन तलाक की सर्वाइवर महिलाओं की एक राष्ट्रीय सुनवाई की थी, जिसमें देश के कई हिस्सों से 500 के करीब महिलाएं इकठ्ठा हुई थीं और उन्होंने अपनी जबानी अपनी कहानी बताई थी. वहां सब मीडिया भी थी और इसी तरहसे जनता के बीच हमारी यह बात गयी थी कि कुछ औरतें हैं जो तीन तलाक को लेकर इस तरह की मांग कर रही हैं और इसलिए तीन तलाक की प्रथा पर रोक लगनी चाहिए.

मैं कहना यह चाह रही हूं कि भाजपा सरकार के सत्ता में आने से बहुत पहले से ये हालात रहे हैं और महिलाएं इक्का-दुक्का तौर पर इंसाफ की मांग करती आई हैं. 2007 में जबसे बीएमएमए बना है, तबसे हम सार्वजनिक रूप से यह मांग करते आए हैं.

याद कीजिए कि जब 1985-86 में शाह बानो खड़ी हुई थी तब सारे के सारे, चाहे वो सरकार हो, नेता हों, उलेमा हों या एक्सपर्ट, सबने मिलकर एक पैंसठ साला औरत की आवाज़ को कुचल दिया था.

तब और अब में यही फर्क आया है कि आज हज़ारों औरतें हैं जो यह मांग रख रही हैं. मेरे कहने का अर्थ यह है कि जो लोग आज भाजपा सरकार के सत्ता में होने के खतरे की दुहाई दे रहे हैं, उनके लिए यह बहुत अच्छा हाथ में बहाना आ गया है कि भाजपा की सरकार है तो वो तो मुस्लिमों के खिलाफ ही काम करेगी लेकिन सच्चाई यहां दोनों तरफ है.

केंद्र सरकार क्योंकि भाजपा की है और उनकी हिंदू राष्ट्र और अल्पसंख्यकों को लेकर क्या सोच रही है ये तो खुली हुई बात है. लेकिन मेरा कहना यह है कि जो लोग आज भाजपा सरकार के सत्ता में होने का बहाना बना रहे हैं वो तो 2012 में भी हमारी बात सुनने को तैयार नहीं थे.

वे तो 2007 -08 -09-10 किसी भी साल में हमारी बात नहीं सुन रहे थे. इस दौरान हमारा आंदोलन लगातार चल रहा था. कोई सरकार नहीं सुन रही थी, मीडिया भी नहीं सुन रहा था. कुछ लोग ज़रूर थे पर ज़्यादा लोग मीडिया में भी हमारी बात नहीं सुन रहे थे.

जो राजनीतिक दल आज तक अपने आपको कथित सेकुलर कहती आए हैं, हमारे आंदोलन, मुस्लिम औरतों के हालात के बारे में तो उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगी है. उन पर और पर्सनल लॉ बोर्ड पर कभी कोई असर नहीं पड़ा हमारी बात का.

चाहे वो सेकुलर पार्टियां हों, सेकुलर नेता हों या पर्सनल लॉ बोर्ड या उस तरह के लोग हो, वो तो पूरी तरह से पुरुषवादी रहे हैं, महिला-विरोधी रहे हैं. उन्होंने कभी हमारी बात को सुनना ज़रूरी नहीं समझा. और जब चूंकि भाजपा सरकार में है तो ये उसी का बहाना दे रहे हैं.

यानी कुल मिलकर हम औरतों के लिए कभी कोई समय सही नहीं होता. अंग्रेजी में पितृसत्ता के लिए कहा जाता है कि the oldest trick of patriarchy is that the time for gender justice is never right. (पितृसत्ता की सबसे पुरानी रणनीति यही है कि लैंगिक समानता पर बात करने का कोई सही समय नहीं होता.)

हमेशा महिला से ही कहा जाता है कि तुम चुप रहो, पड़ोसी सुन लेगा, चुप रहो वरना हमारी इज़्ज़त का क्या होगा. तुम चुप रहो वरना तुम्हारा घर टूट जाएगा. यही सब पितृसत्ता के तरीके हैं जहां औरतों की आवाज़ को बंद करने के लिए हज़ारों बहाने रोज़ आते हैं.

और मेरे इतना सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि मैं मानती हूं कि भाजपा सरकार फेमिनिस्ट सरकार है, मुझे इस तरह की कोई खुशफहमी नहीं है, लेकिन हमारे पास मौजूद पूरे इतिहास और ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए हम इस बात में नहीं जाना चाहते हैं कि इसके पीछे सरकार का क्या मोटिवेशन रहा है.

सरकार की भावना जो भी रही हो, इस मुद्दे पर संवैधानिक तौर पर सरकार सही राह पर चल रही है. जब तीन तलाक मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था, तब उनकी तरफ से दिया गया हलफनामा संवैधानिक रूप से सौ प्रतिशत सही था. और यह कानून बनाने की प्रक्रिया में भी सरकार संवैधानिक तौर पर बिल्कुल सही है.

ये सारे सेकुलर दल कभी अपने मुंह से नहीं बोले हैं कि कानून की ज़रूरत है न ही मौलवी यह बात बोले हैं. न ही जो चंद लिबरल्स हैं, जो आज मोदी विरोध में लेख लिख रहे हैं उन्होंने कभी भी खुलकर तीन तलाक के खिलाफ आंदोलन का समर्थन नहीं किया.

यानी कहीं न कहीं ये सभी लोग पितृसत्तात्मक हैं और इनके लिए भाजपा का विरोध करना सबसे बड़ा मकसद है न की मुस्लिम महिलाओं के हालात. वो अपनी राजनीति कर रहे हैं, वो करते रहें.

हम यहां मुस्लिम महिलाओं के लिए हैं और उनके हित को ध्यान में रख कर बात करते हैं और हमें लग रहा है कि हमारी जो हमेशा से मांग रही है कानून बनाने की उस पर अब जाकर अमल हुआ है. और हम इससे खुश हैं.

जिसे जो बोलना है बोलते रहे. न ही मौलवी-मुल्ले, कठमुल्ले, न ही कांग्रेस पार्टी या कोई अन्य राजनीतिक दल और न ही उनके साथ खड़े चंद लिबरल्स, इनमें से किसी को भी मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी के हालात के बारे में ज़्यादा अनुभव नहीं है, समझ भी नहीं है.

किसी को भी कुरान के लैंगिक समानता के बारे में जो सिद्धांत है, उनके बारे में ज्यादा मालूमात नहीं हैं न ही कोई दिलचस्पी ही है. मुस्लिम महिलाओं के साथ जो भी होता है, होता रहे उनको उसकी कोई खास परवाह भी नहीं है.

इनकी मुख्य परवाह है भाजपा सरकार का विरोध करना और जो मुस्लिम धार्मिक नेता हैं उनकी परवाह यही है कि भाजपा सरकार का बहाना बनाकर मुस्लिम पर्सनल कानून में जो भी सुधार होता है, उसको टालना.

मैं यह खुलकर कहती हूं कि भाजपा तो 2014 में आई है, उससे पहले भी वे किसी न किसी तरीके से, जबरदस्ती या कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर मुस्लिम महिलाओं के हकों को रोकते आए हैं. मुस्लिम महिलाओं को अल्लाह ने जो हक़ दिए हैं, कुरान ने जो हक़ दिए हैं वो छीनने में, उनसे औरतों को महरूम रखने में उनकी विशेषज्ञता है. इनकी ईमानदारी पर तो सवालिया निशान है.

आज की तारीख में सबसे अहम है भाजपा सरकार का विरोध करना, ये बात मैं निजी तौर पर या बीएमएमए नहीं मानता है. जिसे सरकार का विरोध करना है, करते रहें. सरकार की बहुत सारी नीतियां हैं, कानून हैं उनका विरोध करते रहें. लेकिन यह आंदोलन मुस्लिम औरतों ने खुद खड़ा किया है और इसका तार्किक अंत यही है.

क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद तीन तलाक हो रहे हैं, हमने खुद देखा है. तो जब तक समाज और ग़लत काम कर रहे मर्दों के दिमाग में क़ानून का डर नहीं आएगा, तब तक तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ चल रही मुहिम का कोई नतीजा नहीं निकलेगा.

जो मुस्लिम महिलाओं का दर्द नहीं जानते, उन्हें राजनीति दिख रही है

सोशल मीडिया पर मुस्लिम महिलाओं का एक वर्ग है जो कह रहा है कि सरकार के इस बिल को लाने के राजनीतिक इरादे हैं, तो इसमें भी दो-चार पहलू हैं. पहला तो ये कि मैं और बीएमएमए हमेशा से यह कहते आए हैं कि इस आंदोलन का श्रेय सिर्फ और सिर्फ साधारण मुस्लिम महिलाओं का है, सरकार ने सिर्फ अपना संवैधानिक दायित्व निभाया है. यह हमेशा से स्पष्ट रहा है.

दूसरी बात कि ज़्यादातर महिलाएं खुद पुरुषवादी सोच की शिकार हैं. महिलाओं के केवल शरीर हैं. उन्हें नहीं पता कि मुस्लिम महिलाएं क्या-क्या झेल रही हैं. ज्यादा पुरानी बात नहीं है पर यही कुछ 15-16 साल पहले मैं खुद प्रोफेसर थी, उच्च मध्य वर्ग परिवार से थी लेकिन रोज़ मार खाती थी. कुछ कहने का मौका आता था तो मेरी सोच भी वहीं तक पहुंचती थी, जहां तक मेरे शौहर की.

मुझे ऐसी महिलाओं से कोई गुस्सा नहीं है, कोई विरोध नहीं है लेकिन मैं उम्मीद करती हूं कि कुछ सालों बाद उन्हें समझ आएगा कि मामला क्या है.

तीसरा एक ऐसा तबका है जिसने गरीब महिलाओं या मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों पर कभी कोई काम नहीं किया है. अपने एसी दफ्तर या घर में बैठकर आप लेखक हो सकते हैं, पत्रकार हो सकते हैं. क्योंकि आप मुसलमान हैं, क्योंकि मॉब लिंचिंग हो रही ही, क्योंकि भाजपा सरकार है और उसकी कई गलतियां बिल्कुल साफ हैं इसलिए लग सकता है कि यह उनकी एंटी-मुस्लिम राजनीति का हिस्सा है.

और ये इसलिए भी लग सकता है कि आपने करीब से कभी देखा ही नहीं कि मुस्लिम महिलाएं कैसे-कैसे जूझ रही हैं, कभी आपने उनके मुंह से नहीं सुना है कि उनकी जिंदगी में क्या हो रहा है.

हमारे मुस्लिम समुदाय का यह एक अभिशाप रहा है. जैसे कि अगर दलित समाज से तुलना करें तो मुस्लिम मध्य वर्ग के बहुत कम ऐसे लोग हैं जो खुद पढ़-लिख गए, तो वो पलट के समाज को कुछ दे रहे हैं.

मैं बहुत से ऐसे दलित लोगों को, कार्यकर्ताओं को जानती हूं जो बहुत कुछ बन गए लेकिन फिर भी लगातार जो दलित झुग्गी-बस्तियों में रह रहे हैं, गरीब हैं उनके लिए काम कर रहे हैं, उन्हें कुछ दे रहे हैं.

देने का मतलब यह नहीं कि किताबें बांट रहे हैं कपड़े बांट रहे हैं, दे रहे हैं मतलब उन्हें उनके हकों के बारे समझ बनाते हैं, जागरूक करते हैं, लेकिन हमारे समुदाय में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है.

आप अपने घर में बैठकर आप फेसबुक/ट्विटर पर वक्त गुजारते हो तो कुछ भी लिख देते हो, लेकिन जमीन पर काम करना है, जो कुछ लोग कर रहे हैं तो इनमें से कोई लोग उसमें भाग लेने के लिए आगे नहीं आते हैं. भाग लेने की छोड़िए, किसी बड़े शहर में अगर हमने कोई मीटिंग रखी, तो इनमें से कोई वहां चलकर पहुंचा नहीं औरतों की कहानी जानने के लिए. अगर वे आए होते और उनकी सुनते तो ऐसी बातें न करते.

बहुत सारे एक्टिविस्ट साथी हैं, जिन्होंने बहुत काम किया है, सामाजिक बदलाव में उनका बहुत योगदान है और सबके मन में रंज है कि कानून आया और सामने भाजपा सरकार है, लेकिन वो कुछ नहीं कह रहे क्योंकि वे यह भी जानते हैं कि मुस्लिम महिला कैसे जूझ रही हैं.

सोशल मीडिया पर सब कुछ बहुत आसान है. कितने लोग जमीन पर जाते हैं, मामले की पेचीदगियां समझते हैं, वे सामने आकर कहें कि ये महिलायें झूठ बोल रही हैं, सब बीजेपी की एजेंट हैं!

हैदराबाद से सांसद हैं असदुद्दीन ओवैसी, उन्होंने अब जाकर यह माना है कि तीन तलाक गुनाह है, लेकिन जो बिल पास हुआ है, वह मुस्लिम महिलाओं की परेशानी बढ़ाएगा क्योंकि यह कानून एक वर्ग के लिए बनाया गया है.

यह बात उनकी सही है कि यह कानून एक वर्ग विशेष के लिए बनाया गया है, लेकिन उनकी कही बाकी बातों से मेरा इत्तेफाक नहीं है. पहली बात जो ये मान रहे हैं कि तीन तलाक गुनाह है, ये बात इन्हें मनवाने में भी हमें बहुत वक्त लगा है.

ओवैसी साहब खुद पर्सनल लॉ बोर्ड सदस्य हैं और आप सुप्रीम कोर्ट में पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा दाखिल पहला हलफनामा देख लीजिये, वहां यही कहा गया है कि यही हमारा हनफ़ी तरीका है और बोर्ड वाले इसी को जस्टिफाई करते रहे हैं.

ये सिर्फ महिलाओं का दबाव है कि ये ऐसा कह रहे हैं. क्योंकि हमने क़ुरान की आयतें निकालकर इन्हें तर्क दिए, तब इन्होंने यह माना. जहां तक मुस्लिम महिलाओं की परेशानी बढ़ने की बात है तो वो कब से उनके बारे में चिंता करने लगे?

सालों से काम करते रहे कभी इन्होंने और इन जैसे लोगों को ख़याल नहीं आया. जब हमारा काम मीडिया में आने लगा तब इन्हें लगा कि बोलने की ज़रूरत है. उससे पहले कभी ओवैसी साहब ने किसी रैली में मुस्लिम महिला शब्द नहीं निकाला अपने मुंह से.

ये पूरी तरह से पितृसत्तात्मक लोग हैं और आम महिलाओं और जनता की ओर से व्यापक समर्थन मिल रहा है, उसके चलते इन्हें अपनी कट्टर पोजीशन से नीचे उतरना पड़ रहा है. कल ये दबाव कम हो जाए ये वापस स्प्रिंग की तरह पुरानी जगह पर पहुंच जाएंगे.

तीन तलाक़ ग़ैर-क़ानूनी है, तो विधेयक की ज़रूरत क्यों?

कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि जब सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही तीन तलाक़ को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया था, तो इस विधेयक को लाने की क्या ज़रूरत थी. ये तर्क दिए जाने का कारण वही है कि आम मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी के बारे में मालूमात नहीं हैं.

जहां तक सुप्रीम कोर्ट के फैसले वाले तर्क की बात है तो मुझे बताइये कि फैसला आ गया तो वो महिला क्या करे? वो पति से कहती है कि आप मुझे तलाक नहीं दे सकते हैं, अदालत का फैसला है. वो कहता है कि जा फैसला है तो होगा, जो कर सकती है कर ले, निकल जा यहां से!

ये मेरे नहीं, वाकई में एक पति के शब्द हैं कि तेरे पास फैसला है, तो फैसले को लेकर ही घर से निकल जा. मैंने तलाक दे दिया, तू मेरे लिए हराम हो गयी, निकल जा अब. और यह कहकर घर से निकाल दिया.

अब वो कहां जाए? काज़ी के पास या पुलिस स्टेशन? वकील के पास जाएगी तो वो कहेगा कि फैसला तो है, पर इसे अमल में कैसे लाएंगे? यही पुलिस वाले पूछते हैं कि किस दफा के अंदर इस मामले को दर्ज करें? घरेलू हिंसा में, दहेज में? महिला मना करती है कि मामला तीन तलाक का है तो जवाब मिलता है कि इसके लिए कोई दफा नहीं है.

तो कहने का अर्थ यह है कि सुप्रीम कोर्ट के कई ऐसे फैसले हैं कई कानूनों में, किन्हीं मामले विशेष से जुड़े, मान लीजिए हत्या से जुड़ा कोई फैसला है, तो क्या इसका मतलब यह है कि हत्या से जुड़ा कोई कानून नहीं होना चाहिए देश में? जब दहेज के लिए हत्याएं हुआ करती थीं तब के कई फैसले हैं अदालत के कि बहू को मार दिया, बीवी को मार दिया गया, गलत है ये, तो क्या उसके बाद दहेज को लेकर कानून नहीं लाया गया?

इसके साथ ही दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात, ये जो लोग हकीकत से वाकिफ नहीं हैं, अपराधीकरण-अपराधीकरण कहकर मोर्चा बना रहे हैं, वो हिंदू बहुविवाह कानून बनने का श्रेय ले रहे हैं, दहेज कानून का श्रेय ले रहे हैं, घरेलू हिंसा, पोक्सो सभी का श्रेय ले रहे हैं, तो इन सभी में तो जेल का प्रावधान है. यानी ये लोग जेल के खिलाफ नहीं हैं, मर्दों को जेल भेजने के खिलाफ नहीं हैं. लेकिन क्योंकि भाजपा सरकार है इसलिए उन्हें यह लगता है.

एक और बात उठ रही है कि अगर पति ज़बानी तलाक के चलते के बाद जेल चला जाता है और वह घर का अकेला कमाने वाला है, ऐसे में घर-परिवार कैसे चलेगा?

मेरा सवाल है कि जो लोग ऐसा कह रहे हैं उनको ये कैसे पता कि जो मर्द रात-आधी रात बीवी को घर से निकाल दे रहा है, वो बड़ा भरण-पोषण दे रहा होगा उसे! उसको धेला भी दे रहा है क्या वो जानते हैं? ये सब हवाबाज़ी वाली बहस है कि औरत के हाथ में कोई क़ानूनी हथियार न आए.

अगर कोई पति बिना तलाक के ही बीवी को छोड़ दे, तब क्या?

इस पहलू में पितृसत्ता वाली बात सामने आती है. तलाक तलाक तलाक कहकर उस आदमी को मज़हब का सहारा मिलता है क्योंकि वो ऐसा कहता है और काज़ी/मौलवी उसे सही ठहराते हैं, कि उसने तो कोई गुनाह किया ही नहीं. वो समाज में पूरी इज़्ज़त से घूमता है, उसकी दूसरी शादी भी हो जाती है, समाज-पड़ोसी कोई इस बात का बुरा नहीं मानते.

लेकिन अगर उसने ऐसा नहीं कहा, तो उसे जो मज़हब की इजाज़त मिल रही है, संरक्षण मिल रहा है, वो नहीं मिलेगा. भले ही गलत व्याख्या के चलते ही सही, पर तीन बार तलाक कहकर बीवी से पल्ला छुड़ाने के बावजूद वह इज़्ज़तदार इंसान के बतौर घूम रहा, क्योंकि जो उसने किया वो तो मज़हब के मुताबिक है.

अगर वो ऐसा किए बिना ही बीवी को निकाल देगा तो वो भी ‘गलत और गंदे’ मर्दों में शुमार होगा. तब उसका यह व्यवहार सवालों के दायरे में आएगा कि तुम किस तरह के मुसलमान हो.

मुस्लिम महिलाओं के हकों पर हो विस्तृत बात

इन सब कानून के साथ मुस्लिम महिलाओं के हकों की बात करते समय उनकी शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, जायदाद में उनके हक़ पर भी बात करने ज़रूरत है और बीएमएमए ये लगातार कर रहा है.

बीएमएमए के जो पांच मुख्य कार्य क्षेत्र हैं, वो यही हैं- शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, क़ानूनी सुधार और फिर सुरक्षा. सात शहरों में हमारे कारवां सेंटर चल रहे हैं, जहां पिछले चार सालों में हमने करीब साढ़े नौ हजार महिलाओं, लड़कियों और लड़कों को भी रोजगार के लिए ट्रेनिंग दी है. और हम सिर्फ महिलाओं की बात नहीं कर रहे हैं, लड़कों के रोजगार की बात भी कर रहे हैं.

हमने कभी नहीं कहा कि केवल तीन तलाक ही मुस्लिम महिलाओं का मुद्दा है, बात बस ये है कि मीडिया का अटेंशन सिर्फ उसी को मिल रहा है, जिसमें हम कुछ नहीं कर सकते.

हमारा एक बड़ा मुद्दा सांप्रदायिक भेदभाव, सांप्रदायिक हिंसा भी है और हमने इस बारे में सिर्फ बात ही नहीं की है, जमीन पर काम किया है. मैं गुजरात से आती हूं, मैंने और हम में से कई लोगों ने जान पर खेलकर वहां काम किया है और आज भी कर रहे हैं.

अब जो लोग इस विधेयक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा रहे हैं, वे शौक से जाएं. हमें अल्लाह पर भरोसा है और इस देश के लोकतंत्र/संविधान पर. कोर्ट का जो भी फैसला होगा वो हमारे सिर-आंखों पर. आखिरी बात बस यही है कि मुस्लिम महिलाओं का बहुत ज्यादा दानवीकरण हो रहा है.

इतने सालों में हमारे पास जो औरतें आई हैं, उनमें कोई ऐसी नहीं है कि इंतज़ार में बैठी हो कि कानून आ जाए और बस मैं जा के एफआईआर लिखा दूं, मेरे शौहर को जेल करवा दूं. ऐसी हज़ार में से कोई एक महिला होगी, ज्यादातर महिलाएं बस यह चाहती हैं कि मुझे मारा-पीटा, घर से निकाल दिया, दहेज का सामान रख लिया, बच्चे नहीं दिए, तो कैसे भी करके ये सब सही करवा दो, इंसाफ दिलवा दो.

मेरा मानना है कि पहली बार उस महिला के हाथ में क़ानूनी हथियार आ रहा है, जिसका डर दिखाकर वो शौहर को बोल सकती है कि मुझसे बातचीत करिए, बच्चे और सामान या जो भी है लौटाइये वरना मैं न चाहते हुए भी एफआईआर लिखवाऊंगी.

इस कानून को ऐतिहासिक कहने की यही वजह है. दूसरा ये खुद मुस्लिम महिलाओं के आंदोलन का नतीजा है. सोशल मीडिया की अमीर महिलाएं जो चाहें बोलें, ज़मीन पर काम करने वाली हर महिला के इंसाफ और लोकतंत्र में भरोसे का नतीजा यह कानून है.

(ज़किया सोमन भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) की सह-संस्थापक हैं.)