ललितपुर | परम पूज्य गणाचार्य विरागसागर महाराज की संलेखना समाधि बुध-गुरुवार की मध्यरात्रि 2.30 बजे महाराष्ट्र के जालना में हो गई । रात से ही यह खबर जैसे ही सोशल मीडिया के माध्यम से आई लोग स्तब्ध रह गए। किसी को भी गुरुवर की समाधि की खबर एक सपना जैसे महसूस हुई, लेकिन सच्चाई यही थी। जिसने भी सुना स्तब्ध रह गया, इस खबर के साथ समूचे देशभर की जैन समाज में शोक की लहर व्याप्त हो गई। हालांकि साधु के लिए समाधि उत्सव का दिन होता है।
उनकी आदर्श समाधि हुई है, सभी कार्य उन्होंने समय से किए। मौत सामने खड़ी थी, लोग हॉस्पिटल जाने का निवेदन करते रहे लेकिन वे अडिग थे ,सारी सुविधायें उपलब्ध थीं लेकिन अपने नियमों पर अडिग रहे, आगम के आदेश को माना, निश्चित ही यही सच्ची साधना है, यही मुनि अवस्था की सबसे बड़ी परीक्षा है और वे महामना इस परीक्षा में प्रतिशत सफल रहे।
भारतीय वसुन्धरा को इस बात का महान् गौरव है कि इसने अनेक महान् नर रत्नों को जन्म दिया। रत्न की कीमत फिर भी आंकी जा सकती है किन्तु धर्मात्मा नर रत्नों की कीमत नहीं आंकी जा सकती, क्योंकि उनका कोई मूल्य नहीं होता, वे अमूल्य होते हैं। ऐसे ही अमूल्य रत्न, वात्सल्य के धनी, प्रशांतमूर्ति आचार्य श्री विरागसागरजी महाराज थे। आपके दिव्य व्यक्तित्व का प्रभाव आपके द्वारा दीक्षित साधु वर्ग में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। आचार्यश्री के निर्देशन, प्रेरणा एवं सान्निध्य में जैन समाज को अनेक महान उपलब्धियां हासिल हुई हैं। समाजोत्थान हेतु आपका अविस्मरणीय योगदान है। आचार्यश्री ने अपने अंदर कभी अभिमान नहीं पनपने दिया, हमने जब भी देखा है तो प्रसन्नता ही देखने को मिली। वे वात्सल्य के धनी थे,साधुओं पर उनका अतीव वात्सल्य झलकता था। विद्वानों के प्रति भी उनका असीम वात्सल्य देखने को मिलता था।
यति सम्मेलन-युग प्रतिक्रमण की प्राचीन परंपरा को पुनर्जीवित किया :
जैन शासन में युग प्रतिक्रमण यति सम्मेलन की पुरातन परम्परा है। अर्हद्बलि आचार्य भगवन् ने यति सम्मेलन युग प्रतिक्रमण किया था। पांच वर्ष का एक युग माना गया है, इसलिए इसे युग सम्मेलन भी कहते हैं। इस सम्मेलन में सौ योजन (लगभग 1200 किलोमीटर) दूर तक के साधु इसमें सम्मिलित होते थे। उस काल में हुए यति सम्मेलन में जिनशासन की प्रभावना के निमित्त मुनिराजों के द्वारा अनेक निर्णय लिये गये थे। आचार्य श्री विरागसागरजी महाराज ने यति सम्मेलन व युग प्रतिक्रमण की एक अति प्राचीन जैन परम्परा को पुनर्जीवित करने का स्तुत्य प्रयास किया । इसको व्यवस्थित रूप से सन् 2012 में जयपुर से शुरु किया और इसके बाद निरंतर श्रृंखला चलती रही है। 2017 में अतिशय क्षेत्र करगुवां जी-झांसी में आयोजित यति सम्मेलन व युग प्रतिक्रमण कार्यक्रम में आयोजित विद्वत् संगोष्ठी में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ था। उसी परम्परा को जीवंत रखते हुए जन्म भूमि पथरिया (दमोह) में फरवरी 2023 में बहुत महत्त्वपूर्ण आयोजन हुआ था जिसमें विविध आयोजन हुए साथ ही साथ में साधु संघ का विशाल संघ भी इसमें जुटा और विविध चर्चा-परिचर्चा, संवाद-विमर्श हमें देखने को मिलें।
साहित्य साधना : पूज्य गणाचार्यश्री द्वारा चेतन कृतियों के साथ अनेक ग्रंथों, टीकाओं को लिखकर श्रुत सम्वर्द्धन किया है। आचार्य विरागसागर ने 6 से अधिक साहित्य पर शोध किया था। शोध में वारसाणुपेक्खा पर 1100 पृष्ठीय सर्वोदयी संस्कृत टीका, रयणसार पर 800 पृष्ठीय रत्नत्रयवर्धिनी संस्कृत टीका, लिंग पाहुड़ पर श्रमण प्रबोधनी टीका, शील पाहुड़ पर श्रमण संबोधनी टीका, शास्त्र सार समुच्चय पर चूर्णी सूत्र और अनेक शोधात्मक ,शुद्धोपयोग, सम्यकदर्शन, आगमचक्खूसाहू आदि, चिन्तनीय बालकोपयोगी कथा अनुवाद गद्य संपादित साहित्य, जीवनी व प्रवचन साहित्य 150 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया।गणाचार्य श्री विरागसागरजी महाराज के शिष्यों ने साहित्य सृजन के क्षेत्र में विशेष क्रांति लायी है।
अद्भुत संयोग :
दक्षिण में जन्में संत आचार्य श्री विद्यासागर जी की समाधि उत्तर में हुई और उत्तर में जन्मे गणाचार्य श्री विरागसागर जी की समाधि दक्षिण में हुई। दोनों महान आत्माओं की समाधि का समय भी लगभग एक समान है। एक अष्टमी पर्व पर तो दूसरे चतुर्दशी पर्व पर समाधि को प्राप्त हुए । गणाचार्य श्री विराग सागर जी का जन्म गुरुवार को हुआ था और समाधि भी गुरुवार को हुई, यह अपने आपमें स्मरणीय तथ्य है।
एक के बाद एक श्रमण सूर्य का अवसान बहुत बड़ी क्षति :
2024 में जैन श्रमण संस्कृति के दो बड़े संघों के नायक (आचार्यों) की समाधि होने से सकल जैन समाज स्तब्ध है। फरवरी में संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी के बाद अब दूसरे बड़े संघ के आचार्य विरागसागर जी की समाधि हुई है। इसके पूर्व में हाल ही के वर्षों में आचार्य श्री विद्यानंद जी महाराज, सराकोद्धारक आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज, आचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज, मुनि श्री तरुणसागर जी महाराज, आचार्य श्री निर्मल सागर जी महाराज आदि जैसे प्रभावक दिगम्बर संतों की समाधि ने बहुत बड़ा शून्य पैदा कर दिया है जिसकी भरपाई असंभव दिख रही है। एक के बाद एक बड़े बड़े संतों की समाधि से श्रमण संस्कृति , जैन समाज को गहरा आघात पहुँचा है।
जन्म से समाधि तक का सफर एक ही दिन : आपका जन्म 2 मई 1963 , गुरुवार को पथरिया जिला दमोह में श्रेष्ठि श्री कपूरचंद जी (समाधिस्थ मुनि श्री विश्व वंद्य सागर जी) एवं माता श्रीमती श्यामा देवी( समाधिस्थ आर्यिका श्री विशांतमति) के यहां पथरिया जिला दमोह में हुआ आपका बचपन का नाम श्री अरविंद कुमार जैन था ।आपने 5 तक की शिक्षा पथरिया में प्राप्त करने के बाद सन 1974 में कटनी श्री शांति सागर निकेतन संस्कृत विद्यालय में धार्मिक शिक्षण 6 वर्ष प्राप्त कर 11 तक की लौकिक शिक्षा तथा शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की आपने 20 फरवरी 1980 को 17 वर्ष की उम्र में बुढ़ार में आचार्य श्री सन्मति सागर जी से क्षुल्लक दीक्षा ली आपका नाम श्री पूर्णसागर किया गया आपने 9 दिसंबर 1983 को औरंगाबाद में मुनि दीक्षा आचार्य श्री विमल सागर जी से प्राप्त की आपका नाम श्री विराग सागर जी किया गया। आपको आचार्य पद 9 नवंबर 1992 को 29 वर्ष की उम्र में सिद्ध क्षेत्र द्रोणगिरी में दिया गया ।
प्रभावनामयी अनेक आयोजनों के प्रेरणास्रोत :
29 की उम्र में ही आचार्य पद की जिम्मेदारी मिलने के बाद गणाचार्य विरागसागर जी मुनिराज ने जैन संस्कृति की धर्म प्रभावना को ऐसा बढ़ाया कि हर युवा उनसे प्रभावित होने लगा। न सिर्फ बुंदलेखंड, मप्र बल्कि उप्र, विहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र सहित अन्य प्रांतों में विहार करते हुए धर्म पताका फहराया।
उनके सान्निध्य में अनेक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुईं। शाकाहार और व्यसन मुक्त जीवन के लिए उनकी प्रेरणा से अनेक आयोजन हुए जिससे लाखों लोग प्रभावित हुए, उन्हें नया जीवन मिला। सम्यक ज्ञान शिविर, पूजन प्रशिक्षण शिविर, श्रावक संस्कार शिविरों से युवा वर्ग में एक अनोखी जागृति देखने को मिली।
पांच सौ से अधिक शिष्य- प्रशिष्य :
प्राप्त जानकारी के अनुसार आचार्य विरागसागर ने संघ में 94 मुनियों, 73 आर्यिकाओं, 5 ऐलक, 23 क्षुल्लक, 32 क्षुल्लिका दीक्षाएं देकर चेतन कृतियों का निर्माण कर मोक्षमार्ग की ओर प्रशस्त किया। इस तरह करीब 222 साधु, साध्वियां विराग सागर के बड़े संघ में हैं। 9 आचार्य बनाए। उनके शिष्य प्रशिष्य को मिलाकर पांच सौ से अधिक यह संख्या पहुँच जाती है जो श्रमण संस्कृति को गौरवमयी है।
इसके अलावा 133 से अधिक संलेखना करा एक महनीय कार्य संपादित किया।
संघ को समय पर किया व्यवस्थित : समाधि के परम पूज्य निर्यापक मुनि श्री सुधा सागर जी महाराज ने अपनी विनयांजलि में कहा कि उनका संघ अनाथ नहीं हुआ है, वे समय-समय पर अपने शिष्यों को अधिकार देते गए और संघ को व्यस्थित करते गए। शायद उन्हें पहले से महसूस हो गया था कि वे जल्दी चले जायेंगे। श्रमण संस्कृति की बहुत बड़ी कतार उनके निमित्त से मिली।
मजबूत हाथों में पट्टाचार्य पद ; गणाचार्य श्री विराग सागर जी को शायद पहले से महसूस हो गया था कि अब उनकी देह ज्यादा समय इस धरती पर रहने वाली नहीं है इसलिए उन्होंने समय रहते समाधि के एक दिन पूर्व ही अपने अंतिम संबोधन में पट्टाचार्य का पद अपने सुयोग्य शिष्य योग्य प्रभावक संत चर्या शिरोमणि आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज को देने की घोषणा कर आगम की परंपरा का पालन किया। निश्चित ही पूज्य आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज को यह पद दायित्व सौपकर अपनी विरासत को मजबूत हाथों में प्रदान किया है।
पूज्य गुरुदेव का संपूर्ण जीवन ‘स्व’ और ‘पर कल्याण’ के लिए समर्पित रहा। वे अध्यात्म के सूर्य थे। मुझे भी अनेक बार उनके दिव्य सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जहाँ विद्वत् संगोष्ठियों में सहभागिता की वही प्रतिभा सम्मान और पत्रकार सम्मेलन जैसे आयोजनों में उनके सान्निध्य में योगदान देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अनेकबार निकटता से चर्चा और आशीर्वाद प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
आज भौतिक रूप से भले ही वह हमारे बीच नहीं हैं, किंतु उनकी शिक्षाएं, विचार, व्यवहार और उनका व्यक्तित्व हमें सदैव सन्मार्ग की दिशा दिखाता रहेगा।
परम पूज्य जैन दिगम्बर आचार्य श्री विराग सागर जी महाराज के विचार प्रकाश स्तंभ बनकर सदैव हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। समाधी नमन !
साधना की जगमगाती देहरी से,
एक दीपक फिर किनारा कर गया।
मंजिलों की दूरियां पूछें कहाँ से,
मील का पत्थर किनारा कर गया।।
हम सब का परम दायित्व और कर्त्तव्य है कि हम उनके बताए मार्ग पर चलें तभी सच्ची विनयांजलि होगी।
‘गुरुवः पांतु नो नित्यं, ज्ञान- दर्शन नायकाः । चारित्रार्णव गंभीरा मोक्ष मार्गोपदेशकाः।।”