श्री भारतवर्षीय दिगंबर जैन महासभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कैलाश रारा ने बतलाया कि भगवान महावीर के मोक्ष गमन के पश्चात 683 वर्ष तक श्रुत परंपरा चलती रही और इस समय तक श्रुत को लिपिबद्ध करने का कार्य प्रारंभ नहीं हुआ। ईस्वी सन की द्वितीय शताब्दी में गिरनार पर्वत की चंद्र गुफा में तपस्यारत आचार्य धरसेन स्वामी अपनी अल्प आयु जानकर श्रुत विच्छेद के भय से चिंतित हुए क्योंकि उस समय मुनियों की स्मरण शक्ति क्षीण होने लगी थी अतः उन्होंने महिमा नगर जिला सतारा महाराष्ट्र में चल रहे साधु सम्मेलन के आचार्य अरहदबलि को पत्र लिखकर दो योग्य मुनियों को भेजने का अनुरोध किया। आचार्य अरहदबलि के भेजे दो योग्य शिष्य जो कालांतर में पुष्पदंत और भूतबलि नाम से प्रसिद्ध हुए, को आचार्य धरसेन ने जैन आगम का गहन अध्ययन करवाया जिसके परिणाम स्वरूप दोनों शिष्यों ने षटखंडागम नामक ग्रंथ को लिपिबद्ध किया। जिसका एक खंड पुष्पदंत एवं पाँच खंड भूतबली ने लिखे और सन 156 ईस्वी में जेष्ठ शुक्ल पंचमी को ताड़पत्र पर लिखित उक्त ग्रंथ की चतुर्विध श्रावक संघ के द्वारा विधिवत्त पूजा की गई। तब से ही जैन धर्म में श्रुत पंचमी दिवस के अवसर पर शास्त्रों की पूजा भक्ति एवं विनय करने की परंपरा चली आ रही है एवं लोक में यह पर्व श्रुत पंचमी के नाम से विख्यात हुआ।