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परमात्म भक्ति तभी सार्थक है जब निज आत्मा का अनुभव हो – श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी महा मुनिराज 

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जतारा सिद्ध भगवान की आराधना हमारे जीवन में अनेको उपलब्धियों को प्रदान करने वाली है।  सिद्ध भगवान कोन है ? उनका स्वरूप क्या है ? कहाँ रहते हैं ? जब तक इन प्रश्नों का समाधान हमे प्राप्त नही होगा तब तक हमारे द्वारा की गई,  सिद्धो की आराधना अधूरी ही रहेगी। लोक के अग्रभाग में स्थित सिद्ध भगवानों की आराधना हम सिद्ध चक्र महामण्डल विधान में कर रहे हैं, यह आराधना हमारी अधूरी है ।  वास्तव में जो आत्माये  सिद्ध परमात्मा  बन गई है उनकी आराधना हम करते ही है उनके साथ-साथ हम अपने अन्दर विराजमान सिद्ध परमात्मा के जैसा जो रूप और स्वरूप है उसकी भी भावना और आराधना करते है, वास्तव में अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए लोकाग्र स्थित सिद्धों की और अपने अन्दर स्वभाव से शुद्ध, सिद्ध परमात्मा की आराधना किया करते हैं, यही हमारे द्वारा की गई सिद्धों की आराधना पूर्ण कहलाएगी। ऐसा महामंगल सदुपदेश श्री सिद्धचक्र महामंडल विधान की आराधना में आचार्य श्री विमर्श सागर जी महामुनिराज ने दिया ।

“आचार्यश्री ने उपदेश देते हुए बताया- बन्धुओं ! आपने अपने सांसारिक जीवन मे अनेकों बार दूल्हा बनने का अनुभव प्राप्त किया होगा और कई बार बघू का भी वरण किया होगा लेकिन कभी भी आपने परमसुख को प्रदान करने वाली मुक्तिवधू का बरण नहीं किया। सच्या दूल्हा तो वही है जो मुक्ति वधु को वरण करने की भावना रखता है। संसारावस्था में आप अपने से भिन्न, स्त्री के रूप में  वधू का वरण करते हो किन्तु ओ मुक्ति वधु को वरण करने के लिए निकले है ऐसे निर्ग्रन्य वीतरागी जैन संतों की मुक्ति वधू कहीं बाहर नहीं रहती। वीतरागी संतों की मुक्ति वधू उनके ही अंदर अर्थात सहज, शुद्ध, सर्व कर्ममल से रहित चेतन भगवान आत्मा हुआ करती है। उस शुद्ध आत्मा रूपी मुक्तिवधु को लक्ष्य में रखकर ही निर्ग्रन्थ वीतरागी संत जीवन भर तपश्चरण- साधना किया करते हैं । संसार भर में दूल्हें तो अनेक हैं, आप दूल्हें की बारात में भी जाते होंगे लेकिन वास्तविक खुशी तो आपको तब मिलती है जब आपका बेटा दूल्हा बने, ठीक इसी प्रकार जी आत्मा परमात्मा बने है उनकी आराधना तो सब कर लेते हैं। “अरे वास्तविक आनन्द-खुशी तो तब प्राप्त होगी जब अपना आत्मा ही परमात्मा की राह पर चलकर स्वयं परमात्मा बनकर उस परम आनन्द का अनुभव करेगा | वास्तव में सिद्ध परमात्मा की उपासना के साथ, निज आत्मास्वरूप को जानकर, उसी का अनुभव करना, उसी में लीन होना ही परमात्मा की सच्ची आराधना है ।भारतीय जैन संगठन तहसील अध्यक्ष एवं जैन समाज उपाध्यक्ष अशोक कुमार जैन ने बताया कि धर्मनगरी जतारा में परम पूज्य आचार्य संघ के सानिध्य में चल रही सिद्धों की महा आराधना में आज 128 महाअर्घ समर्पित किए गए एवं भक्तामर महामंडल विधान के माध्यम से पुण्यार्जन करने का सौभाग्य श्रीमती ज्योति-दीपचंद्र,श्रीमती अभिलाषा- धर्मचंद्र, पारस, शुभम्, सुवोध, कशिश, किंजल  जैन, कदवां वाले समस्त कदवां परिवार जतारा को प्राप्त हुआ ।