रायपुर – किसी ने पूछा – गुरुदेव क्या कारण है कि आप एक पाषाण को भी भगवान मानते हैं ? मैंने कहा- हमारी दृष्टि उस पाषाण में भगवान का दर्शन करती है। जब भगवान साक्षात् समवशरण में विराजते हैं तब तीर्थकर प्रभु की इसी वीतरागी मुद्रा के दर्शन भव्य जीवों को हुआ करते हैं ऐसी ही भगवान की नासाग्र दृष्टि, हाथ पर हाथ रखे, मौन मुद्रा में समवशरण के अंदर तीर्थकर भगवान विराजमान होते हैं वही रूप और स्वरूप का दर्शन हमें मंदिर में बैठे भगवान का प्राप्त होता है अतः स्थापना निक्षेप से यह पाषाण की प्रतिमा भी भगवान के समान ही पूज्यनीय है । वस्तु की उपयोगिता उसके गुणों पर आधारित है यदि गुण आपकी दृष्टि में आयें तो एक छोटी सी वस्तु भी बहुत उपयोगी होती है। एक पाषाण वह है जो सिलबट्टा कहलाता है उसके गुणों के कारण उसकी उपयोगिता है एक पाषाण वो भी है जो हमारी आत्मा में लगे समस्त कर्मों के बट्टे को हटाने में समर्थ है वह है जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा ।
एक मनुष्य ही ऐसा है जो आत्मगुणों को जान सकता है और अपने- गुणों के द्वारा समस्त पदार्थों के गुणों को भी जान सकता है। गुण प्रत्येक पदार्थ में हैं लेकिन उन्हें जानने की शक्ति मात्र जीव में ही है क्योंकि ज्ञानगुण एक मात्र जीव में ही पाया जाता है। इतनी बड़ी शक्ति मौजूद होने पर भी यह मनुष्य बड़ी भारी भूल- अज्ञानता में पड़ा है अपने ज्ञान गुण के द्वारा संसार के सभी पदार्थों को जानता है किन्तु सब पदार्थों का ज्ञान कराने वाला अपने निज आत्मा और उसके ज्ञान गुण को ही नहीं जानता । जब-जब हम भगवान के दर्शन करते हैं तब-तब भगवान की मुद्रा हमें उपदेश प्रदान करती है कि जैसा स्वरूप मेरा है वैसा ही स्वरूप तेरा है बस कर्म कालिमा को अलग कर दे तो तुझे अपने अंदर ही मेरे जैसे स्वरूप का अर्थात निज भगवान का दर्शन हो जाएगा !