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2070 तक नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन के वादे के पीछे क्या है पीएम मोदी की नीति.

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ग्लासगो में सीओपी 26 जलवायु शिखर सम्मेलन में नरेंद्र मोदी की 2070 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के नेट जीरो पाने की घोषणा ने दुनिया को हैरानी में डाल दिया है. ऐसा इसलिए क्योंकि भारत ने दृढ़ता के साथ इस लक्ष्य के लिए प्रतिबद्धता दिखाने से इनकार कर दिया था. आखिर नेट जीरो क्या होता है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए किस बात की ज़रूरत है.

क्या होता है नेट जीरो
नेट जीरो का मतलब होता है कि कोई भी देश जो कॉर्बन डाइऑक्साइड या ग्रीन हाउस गैस उत्पन्न करता है, उसे प्राकृतिक समाधान या कोई आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके पूरी तरह से अवशोषित कर लिया जाए. चूंकि कार्बन डाइऑक्साइड एकमात्र ग्रीनहाउस गैस है जिसे वातावरण से आसानी से हटाया जा सकता है, नेट जीरो ये भी बताता है कि देश कार्बन न्यूट्रल हो रहा है.

नेट जीरो हासिल करने का गणित बिल्कुल सीधा सादा है, खूब सारे पेड़ लगाए जाएं, पेड़ कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं, यह प्रक्रिया फोटोसिंथेसिस यानी प्रकाश संश्लेषण कहलाती है. ज्यादा पेड़ लगाने से यह सुनिश्चित होगा कि उत्सर्जन का स्तर स्थिर है और वातावरण से ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड सोखी जाएगी. अगर ये प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती है तो नेट जीरो का लक्ष्य पाना मुश्किल होगा.
दूसरा तरीका थोड़ा जटिल है, आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके वायु में मिली हुई कार्बन डाइऑक्साइड को निकालने की रणनीति बनाना. यह प्रक्रिया कार्बन कैप्चर स्टोरेज (सीसीएस) कहलाती है. इस प्रक्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण में मिलने से पहले ही हटा लिया जाता है. तकनीकी विशेषज्ञ बताते हैं कि इस प्रक्रिया से 90 फीसद CO2 के उत्सर्जन को काबू किया जा सकता है, ये वो CO2 है जो फॉसिल फ्यूल (कोयला) जलाने से पैदा होती है. हालांकि ये प्रक्रिया बहुत मंहगी है और अभी भी शुरुआती दौर में है.

लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के मुताबिक पहली बड़े स्तर पर सीसीएस परियोजना 1996 में नॉर्वे में चालू की गई थी. वर्तमान में ऐसी केवल 18 बड़े स्तर की सुविधाएं दुनियाभर में सक्रिय हैं जिससे हर साल करीब 31 मिलियन टन CO2 हासिल किया जाता है.
नेट जीरो इतना ज़रूरी क्यों
2015 में सीओपी21 की बैठक में हुए ऐतिहासिक पेरिस समझौते में जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनियाभर के देश ने कार्रवाई करने पर सहमति जताते हुए हस्ताक्षर किये थे और वैश्विक तापमान को पूर्व औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस तक नीचे सीमित करने पर रजामंदी जताई थी, लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ की ग्लोबल वार्मिंग की निगरानी करने की इकाई, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) ने पाया कि जलवाय से जुड़ी शपथ और दूसरी कार्रवाई सदी के अंत तक तापमान को 2 डिग्री नीचे रखने के लिए काफी नहीं है.
आईपीसीसी ने कहा कि ऐसे में देशों को सुनिश्चित करना होगा कि वह 2050 तक नेट जीरो बन जाए, बस यही इससे निपटने की एक उम्मीद है. वैसे भी जलवायु परिवर्तन का असर लगातार नजर आ ही रहा है, नॉर्थ अमेरिका में गर्म हवाएं चल रही हैं तो यूरोप में बाढ़ आ रही है. डिकॉर्बोनाइजेशन और ज्यादा से ज्यादा CO2 को हटाना ही जलवायु परिवर्तन को काबू में रखने के प्रयासों का केंद्र बिंदु बन गया है.

हालांकि जलवायु विशेषज्ञ और एजेंसी का इस बात पर जोर है कि जलवायु परिवर्तन को असरदार बनाने के लिए देशों, उद्योगों, व्यापार जगत और लोगों को अपनी सोच से बढ़कर कदम उठाने होंगे. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी का कहना है कि तमाम तरह की शपथ और सरकारी प्रयासों के बावजूद 1992 में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) के जलवायु परिवर्तन पर हस्ताक्षर के बाद से ऊर्जा एवं औद्योगिक क्षेत्रों से उत्सर्जित CO2 का स्तर 60 फीसद तक बढ़ा है.
तो नेट जीरो को हासिल करने के लिए देशों को क्या करने की ज़रूरत है
जैसा की विदित है कि CO2 मानवीय गतिविधियों का ही नतीजा है, लेकिन इसे संतुलित करके कम किया जा सकता है और जलवायु से जुड़ी समस्याओं का यही निदान भी है. यूके की एनर्जी एंड क्लाइमेट इंटेलीजेंस यूनिट ने पाया कि मानवीय गतिविधियों से वातावरण में जितनी कार्बन डाइऑक्साइड मिलती है वो ग्लोबल वार्मिंग की अंतिम सीमा के समानुपाती है. इसलिए अगर इसे स्थिर करना है तो CO2 उत्सर्जन को जीरो पर लाना होगा. वहीं यूके की ही बार्केलेज इन्वेस्टमेंट बैंक की रिपोर्ट कहती है कि ये सुनने में जितना अच्छा लगता है, इसे करना उतना ही मुश्किल है.

नेट जीरो के लिए स्वच्छ ऊर्जा तकनीक को लागू करना होगा
आईएई के मुताबिक ही नेट जीरो के लिए बहुत बड़े स्तर पर सभी तरह की उपलब्ध स्वच्छ ऊर्जा तकनीक को लागू करना होगा, जैसे रिन्यूएबल, ईवी और अन्य वैकल्पिक साधन और ये सब अभी से 2030 के बीच में करना है. इस हिसाब से देखा जाए तो दुनिया के सबसे बड़े सोलार पार्क के बराबर का पार्क रोज लगाना होगा. यही नहीं स्वच्छ ऊर्जा पर निवेश दुनिया भर में 2030 तक तीन गुना होगा जो करीब 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर होगा. तब जाकर 2050 तक दुनिया नेट जीरो को हासिल करने में सक्षम होगी.

नेट जीरो को हासिल करने के लिए कोयला, तेल के उपयोग में कटौती करनी होगी
लेकिन लक्ष्यों की सूची में सबसे महत्वपूर्ण है “जीवाश्म ईंधन से तेजी से बदलाव” इसका मतलब साफ है कि नेट जीरो को हासिल करने के लिए कोयला, तेल और गैस के उपयोग में भारी मात्रा में कटौती करनी होगी. इसके लिए 2035 तक आंतरिक दहन वाले इंजन कारों की बिक्री और 2040 तक बेरोकटोक कोयले और तेल बिजली संयंय्रों को समाप्त करने की ज़रूरत होगी. आइईए के मुताबिक नेट जीरो को हासिल करने के लिए वैश्विक ऊर्जा तंत्र में पूर्ण परिवर्तन से कम में बात नहीं बनेगी.

नेट जीरो के लिए अमेरिका और चीन ने 2060 का लक्ष्य दिया है
कई देश पहले से ही नेट जीरो हासिल करने के लिए संयुक्त कार्रवाई की घोषणा कर चुकी है. मसलन यूके, फ्रांस, स्वीडन, नॉर्वे, और डेनमार्क ने अपने राष्ट्रीय कानून में नेट जीरो लक्ष्य को शामिल किया है. अन्य देश जिनमें स्पेन, चिली और फिजी शामिल हैं वह भी इसकी तरफ कदम बढ़ा रहे हैं. यूके और अन्य कई यूरोपीय देशों ने 2050 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करना तय किया है. वहीं दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक अमेरिका और सबसे बड़ा उत्सर्जक देश चीन ने भी 2060 का लक्ष्य दिया किया है. लेकिन ईसीआईयू ने पाया कि विकासशील देशों का इस बात पर जोर है कि अमीर राष्ट्रों को जलवायु परिवर्तन में ज्यादा योगदान देने की ज़रूरत है.
विकसित देशों का ग्लोबल वार्मिंग में योगदान ज्यादा
ईसीआईयू का कहना है कि ये 1992 में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलन में ये सिद्धांत प्रतिपादित हुआ था कि अमीर राष्ट्रों को जलवायु परिवर्तन का नेतृत्व करना चाहिए, जिसकी पेरिस समझौते में भी पुष्टि की गई थी. इसलिए अगर विज्ञान यह कहता है कि शताब्दी के मध्य तक नेट जीरो हो, तो विकसित देशों को इस हिसाब से पहले की तारीख अपनानी चाहिए क्योंकि वह बड़े उत्सर्जक हैं और उनका ग्लोबल वार्मिंग में योगदान ज्यादा है.

भारत को वहां तक पहुंचने के लिए क्या जरूरत
विकासशील देशों ने नेट जीरो के लक्ष्य को उन पर थोपने का विरोध किया है. उनका कहना है कि अमीर राष्ट्रों ने अपने मानवीय और आर्थिक विकास के लिए सस्ते फॉसिल फ्यूल का इस्तेमाल किया और अब जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य उनके नागरिकों को गरीबी से बाहर निकालने में आड़े आ रहा है. उनका तर्क है कि विकसित और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन को लेकर सामान्य लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धांत पर काम करना था.

‘गरीब देशों की मदद के लिए ग्रीन फंड में 100 बिलियन डॉलर दें अमीर राष्ट्र’
लाइक माइंडेड डेवलपिंग कंट्रीज समूह के भारत और अन्य सदस्यों ने इसलिए नेट जीरो के लक्ष्य का विरोध किया था. उनका कहना है कि अमीर राष्ट्र सबसे पहले जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में अपने समर्पण प्रदर्शित करें और दूसरा गरीब देशों की मदद के लिए ग्रीन फंड में 100 बिलियन डॉलर के अपने वादे को पूरा करें जिससे जलवायु परिवर्तन के प्रयास पूरे हो सकें. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी के भाषण ने सबको हैरान कर दिया क्योंकि भारत ने ना सिर्फ नेट जीरो के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई बल्कि अपने स्वैच्छिक कार्यों और नेशनली डिटरमाइंड कॉन्ट्रीब्यूशन (एनसीडी) को आगे बढ़ाने की घोषणा भी की.

‘2030 तक अक्षय ऊर्जा से भारत की आधी बिजली का उत्पादन’
रिपोर्ट के मुताबिक 2070 तक नेटजीरो को लेकर विस्तृत जानकारी अभी आना है. प्रधानमंत्री मोदी ने जोश के साथ जलवायु परिवर्तन मामले में कार्रवाई की बात कही है जिसमें 2030 तक अक्षय ऊर्जा से देश की आधी बिजली का उत्पादन करना और दशक के अंत तक 1 बिलियन टन CO2 उत्सर्जन कटौती शामिल है. उनका यह भी कहना था कि 2030 तक जीडीपी के लिए CO2 की तीव्रता 2005 के मुकाबले 45 फीसदी घट जाएगी.
उन्होंनें कहा कि भारत यह अपेक्षा करता है कि दुनिया के विकसित राष्ट्र जल्द से जल्द जलवायु वित्त के रूप में 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर उपलब्ध कराएंगे. यह एक न्यायिक मांग है कि जिन राष्ट्रों ने अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं को नहीं रखा है, उन पर दबाव डाला जाना चाहिए.