गुरुग्राम | आचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज के सुमधुर कण्ठ से की गई दिव्यार्चना में झूम उठे भक्त । 02.07.2024 गुरुग्राम विश्वभर के भाषा विज्ञानियों एवं लिपि विशेषज्ञों को आश्चर्य में डालने वाली “विमर्श एम्बिसा” जो पूर्णतः मौलिक नवीन भाषा है एवं मौलिक नवीन लिपि – “विमर्श लिपि” के सृजेता परम पूज्य जिनागम पंथ प्रवर्तक भावलिंगी सते श्रमणाचार्य श्री. श्री 108 विमर्श सागर जी महामुनिराज हरियाणा प्रान्त गुरुग्राम महानगर के 1008 श्री पार्श्वनाथ जिनालय में विराजमान हैं। आचार्य गुरुवर की वात्सल्यमयी मधुर मुस्कान भक्त समुदाय को अनायास ही अपनी ओर खींच लाती है। अतः गुरुदेव के दर्शनार्य भक्तों का तांता निरंतर लगा ही रहता है। 02 जुलाई मंगलवार की प्रातः बेला में जैन बारादरी प्रांगण में पूज्य आचार्य श्री एवं ससंघ के सानिध्य में प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ स्वामी की महा- दिव्यार्चना “श्री भक्तामर विधान ” के माध्यम से की गई। अतिशयकारी श्री भक्तामर विधान को पूज्य आचार्य श्री ने स्व- रचित श्री भक्तामर जी पद्यानुवाद को अपने सुमधुर कण्ठ से उच्चरित करते हुए उपस्थित भक्त समूह को भक्ति की डोर से बाँध दिया। आराधना में भक्तों के मन मयूर के साथ उनके हाथ-पाँव व वदन भी भक्ति में थिरकने लगे । जन-जन के मुख से एक ही आवाज निकल रही थी – ” ऐसी भक्तिमय दिव्यार्चना आज से पहले हमने कभी नहीं की।” श्री आदिनाय दिव्यार्चना के मध्य आचार्यश्री उपस्थित धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए कहा – भक्ति के फल अचिन्त्य, अद्भुत एवं अभूतपूर्व हुआ करते हैं। आज भी आपकी भक्ति सच्ची हो तो वे ही फल प्राप्त हुआ करते हैं जो प्राचीन काल में भक्ति करने वाले महानुभावों को प्राप्त होते थे। भगवान के अतिशयों में कहीं कमी नहीं है, यदि कमी आई है तो आपकी ही भक्ति-भावना में ही कमी आई है। भक्ति मानव जीवन का सबसे सुन्दर आभूषण है। जिनेन्द्र भगवान का भक्त ही लोक में सर्वत्र सुंदर होता है।