बांसवाड़ा | वर्तमान में तीर्थंकरों का जिन शासन चल रहा है इसमें जीव अपना कल्याण कर सकते हैं श्रावक को श्रद्धावान ,विवेकवान और क्रियावान होना चाहिए। ऐसे श्रावक देव शास्त्र और गुरु के भक्त होते हैं । सभीको ऐसा जीवन बनाना चाहिए जिससे पाप का बंध नहीं हो। उन्हें चलने, चेष्टा करने ,बैठते ,बोलने भोजन करने सोने धार्मिक कार्य आदि में ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे पाप का बंध नहीं हो ऐसा उपदेश गुरुजन देते हैं क्योंकि उनका जीवन भी इसी प्रकार समीचीन पूर्ण रहता है ,उनकी भाषा सीमित मधुर और कल्याणकारी होती है वह श्रावक को जीवन में यथार्थ रूप से धर्म धारण करने का कल्याणकारी उपदेश देते हैं यह मंगल देशना पंचम पट्टाधीश वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज ने खांदू कॉलोनी बांसवाड़ा में आयोजित धर्म सभा में प्रकट की। ब्रह्मचारी गज्जू भैय्या समाज अध्यक्ष अमृत लाल अनुसार आचार्य श्री ने प्रवचन में आगे बताया कि कषाय सभी प्राणियों में होती है आत्म साधकों में भी अल्प होती है जो शीघ्र नष्ट हो जाती है कषाय लंबे तीव्र काल तक रहने से बैर रूपी गांठ लग जाती है कमठ के जीव ने बैर के कारण 10 भव तक पारसनाथ भगवान पर उपसर्ग किया परेशान किया ।आज आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज का समाधि दिवस है सन 1971 में आचार्य ज्ञानसागर जी किशनगढ़ में विराजित थे तब हम भी मुनि अवस्था में दीक्षा गुरु आचार्य धर्मसागर जी के साथ गए तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने संघ की अगवानी की। 17 दिनों तक साथ में रहे आचार्य ज्ञानसागर जी ने धर्म सभा में कहा धर्म के बिना ज्ञान अधूरा है ,बाद में आचार्य धर्मसागर जी ने प्रवचन में कहा ज्ञान के बिना धर्म अधूरा है। पहले साधुओं में एक दूसरे के प्रति वात्सल्य रहता था । छोटे बड़े का भेद नहीं देखते थे ।आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज ने क्षुल्लक अवस्था में आकर प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांति सागर जी महाराज की परंपरा के आचार्य श्री वीर सागर जी के शिष्य आचार्य शिवसागर जी महाराज से मुनि दीक्षा ली । आपने श्रावक अवस्था में और साधु जीवन में अनेक शास्त्रों की रचना की। आचार्य श्री ने आपके ज्ञान और चारित्र की प्रशंसा की। आचार्य श्री ने समयसार और महाबंध ग्रंथ का जिक्र कर बताया कि महाबंध ग्रंथ का स्वाध्याय जरूर करना चाहिए कैसे व्यक्ति जीता है, कैसे कर्मो से छूटता है ,कैसे कर्मों का बंध होता इसका महाबंध ग्रंथ में उल्लेख है। नसीराबाद समाज ने ज्ञान सागर जी को आचार्य पद को दिया तब दीक्षा गुरु आचार्य श्री शिवसागर जी जीवित थे। आचार्य श्री शिव सागर जी की समाधि 16 फरवरी 1969 को हुई आपकी समाधि के बाद 24 फरवरी 1969 को आचार्य श्री धर्म सागर जी तृतीय पट्टाधीश गुरु परंपरा में बनाए गए। ज्ञान और चरित्र से जीवन उन्नत बनता है । राजेश पंचोंलिया एवम समाज प्रवक्त्ता अक्षयडोंगरा अनुसार आचार्य श्री वर्धमान सागर जी ने आचार्य श्री शांतिसागर जी की परंपरा का ज्रिक कर श्री वीरसागर जी,श्री शिवसागर जी श्री धर्मसागर जी ,श्रीअजीतसागर जी की मूल ब्रह्मचारी परंपरा का ज्रिक किया परंपरा पूर्वजों से प्राप्त होती है शिष्य की महानता गुरु के साथ रहने से होती हैं आचार्य ज्ञान सागर जी और आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कभी परंपरा से नाम जोड़ा नहीं था। कषाय के मंदता होने पर संलेखना धारण की जाती है शरीर और कषाय को क्रश करना ही संलेखना होता है। जन्म और मरण का उत्सव बिरले प्राणियों का ही होता है ।सभी को ज्ञान चारित्र के साथ संयम दीक्षा लेकर संलेखना पूर्वक मनुष्य जीवन को सार्थक करना चाहिए आचार्य श्री शिव सागर जी कहते थे, मनुष्य को आड़े होकर नही खड़े होकर घर से निकलना चाहिए संयम धारण करना चाहिए।इसी में जीवन की सार्थकता है |