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चित आत्मा की परम विशुद्धता परमात्मा पद और आंशिक विशुद्धता धर्मात्मा होने का सूचक हैं -आर्यिका श्री सृष्टि भूषण माताजी

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ललितपुर| आचार्य श्री सुमति सागर जी एवं विद्याभूषण आचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज की शिष्या आर्यिका श्री सृष्टिभूषण माताजी 1008 श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर अटा मंदिर ललितपुर में ग्रीष्मकालीन वाचना हेतु आर्यिका श्री विश्व यश मति सहित विराजित है। आज की धर्म सभा में श्री सृष्टि भूषण माताजी ने बताया कि नफरत करने वाले हमेशा शर्मिंदा होते हैं, और प्यार प्रेम करने वाले मरकर भी अमर और लोकप्रिय होते हैं। इसलिए मनुष्य जीवन में जीने का मतलब समझ कर दुश्मनी नहीं करना चाहिए। मनुष्य की वाणी में अमृत और विश्व दोनों होता है पुण्य उदय से वाणी मिली है तो उसका सदुपयोग करना चाहिए।संत वाणी ज्यादा आचरण से बोलते हैं।स्वयंभू स्तोत्र में भगवान का गुणानुवाद करते हैं इससे कोटी जन्म के पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। आत्मा का स्वभाव विशुद्ध परिणति का है। संघस्थ शिखा दीदी अनुसार माताजी ने आगे बताया कि चित् आत्मा की परम विशुद्धता का नाम परमात्मा है ,और चित आत्मा की आंशिक विशुद्धता से व्यक्ति धर्मात्मा होता है। जैन कुल में जन्म लेने से सौभाग्य नहीं मिलता है जन्म का सौभाग्य दीक्षा लेने से संयम धारण करने से होता है |
पूजा ,प्रेम ,धर्म , स्वाध्याय आत्मा का स्वभाव है क्रोध ,मान ,माया लोभ कम होने से परिणाम में विशुद्धता आती है । धर्म का संविधान सर्वोपरि है आज के मानव का जीवन क्रोध ,आकांक्षा आसक्ति, से बर्बाद हो रहा है आसक्ति परिवार की, धन दौलत की, संपत्ति , काम ,विषय भोग, पुत्र ,संसार आदि की होती है जिस प्रकार बुखार सचेत कर शरीर में विकृति की सूचना देता है इसी प्रकार आपको नौ कर्म ,द्रव्य, क्षेत्र काल भाव आदि से धर्म की उपलब्धि करना चाहिए तभी संसार के कष्ट दूर होंगे। माताजी के प्रवचन के पूर्व आर्यिका श्री विश्वयश मति जी के प्रवचन हुए |