बड़ौत – दिगम्बर जैनाचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज ने ऋषभ सभागार मे धर्मसभा में प्रवचन करते हुए कहा कि-हमारे यहाँ राग की नहीं, वीतरागता की पूजा है । देवाधिदेव सर्वज्ञ जिनदेव की स्वर्ग के देव भी वंदना करते हैं। जो जितना-जितना राग को छोड़ता जाता है, वह उतना उतना पूज्य होता जाता है। जितना-जितना आप परिग्रह जोड़ोंगे, उतना उतना अशांति, दुःख को प्राप्त करोगे । और जितना-जितना छोड़ते जाओगे उतनी सुख-शांति की वृद्धि होगी । व्यक्ति की जितनी – जितनी आसक्ति रहती है, राग रूप परिणति होती है, कषाय परिणाम होता है, उतना उतना कर्म का आसव-बंध होता है। निरन्तर कषाय को मंद करो। कषाय से बचो। कषाय कष्टकारी ही होती है। कषाय की एक कणिका साधना को भंग कर देती है, जिस प्रकार विष का एक-कण भोजन को विषाक्त कर देता है तपस्या, साधना कोई मनोरंजन नहीं है। तप- साधना आत्म-रंजन की प्रक्रिया है। वैराग्य पूर्वक, आत्म कल्याण के लिए, जागृतिपूर्वक कर्मक्षय के लिए जो तपा जाए वही तप है। लौकिक चाह की भावना है, मान-सम्मान की आकांक्षा है तो कल्याण सम्भव नहीं है। त्याग मुक्ति का साधन है, त्याग-मार्ग में आकांक्षायें बाधक हैं । जो हँसी-हँसी में भी त्यागी की उपेक्षा करता है, उसकी दुर्गति निश्चित है। त्यागी- व्रती, महात्माओं की सेवा करो, गुरुओं के उपदेश सुनो और कष्टों से दूर होने का उपाय करो । धर्म- धर्मात्माओं की रक्षा करो । सभा का संचालन पंडित श्रेयांस जैन ने किया। सभा मे प्रवीण जैन,सुनील जैन, अतुल जैन, विनोद एडवोकेट, मनोज जैन, पुनीत जैन, राकेश सभासद,संदीप जैन, सुखमाल जैन, धनेंद्र जैन,अशोक जैन,विवेक जैन आदि थे।