बड़ौत – आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज ने ऋषभ सभागार में धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा की जिसका चित्त मंगल भूत अहिंसा धर्ममें लगा है, वह मनुष्य धरती पर श्रेष्ठ है । अहिंसा धर्म श्रेष्ठ धर्म है । अहिंसा से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है । सत्य, अचोर्य, अपरिग्रह ,करुणा, दया, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य ,आदि धर्म अहिंसा के ही अंग हैं ।अहिंसा से बढ़कर अन्य कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है । कोटि-कोटि यज्ञ से अधिक श्रेष्ठ है। किसी एक जीव के प्राणों की रक्षा करना अहिंसा, अर्थात किसी की जीव को पीड़ित नहीं करना और उसके प्राणों की रक्षा करना है ।
जो छत्र की तरह सभी जीवो की रक्षा करें ,वह क्षत्रिय कहलाता है जो जिनेंद्र की आज्ञा माने वह जैन कहलाता है। जो माँ की तरह सभी जीवो को हित का उपदेश दे वे शास्त्र कहलाता है । जो ब्रह्म में आसन करें वह ब्रह्म है । जिसकी दिशाएं ही अंबर है वह दिगंबर है । जो हिंसा न करें वह अहिंसक है जिसका जैसा भाग्य होता है उसे वह अवश्य फलित होता है । भाग्य से अधिक और समय के पहले किसी को कुछ नहीं मिलता ।कर्मों की गति कुटिल होती है । कर्म का फल क्या होगा यह जान पाना अत्यंत कठिन है ।कर्म का खेल कोई जान नहीं पाता । कर्म गिराता,कर्म उठाता,कर्म हँसता कम रुलाता कर्म ही दर-दर भटकता। कर्म की गति न्यारी होती है। कर्म किसी को नही छोड़ता है ।सभा का संचालन पंडित श्रेयांस जैन ने किया । सभा मे प्रवीण जैन, अतुल जैन, सुनील जैन, दिनेश जैन, वरदान जैन, विनोद जैन आदि थे ।