बड़ौत – दिगम्बर जैनाचार्य श्री विशुद्धसागर जी गुरुदेव ने ऋषभ सभागार मे धर्म-सभा में सम्बोधन करते हुए कहा कि – विवेकी मानव की सोच, विचार विशाल होते हैं। उसकी दृष्टि विस्तृत होती है। दूर दृष्टि ही विचारों से महान् बन सकता है। दृष्टि में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद, क्रिया में अहिंसा श्रेष्ठता की पहचान है। श्रेष्ठ मनुष्य हमेशा मधुर- वचनों का प्रयोग करता है । धैर्यशीलता, नम्रता, विचारों की उच्चता, मधुर- व्यवहार सज्जन-पुरुष की पहचान है । मानव को कोई अन्य दुःख नहीं देता, स्वयं ही मानव दुःख के साधनों को एकत्रित कर दुःखी होता है । स्वयं के विचारों से ही मानव कार्य करता है, अन्य कोई ईश्वर हमें सुख- दुःख नहीं देता है। स्वयं का ही कर्म स्वयं को कष्ट देता है। यदि आपको कष्टों से बचना है, तो अपने भावों को सँभाली । स्वयं ही स्वयं का कर्ता है ‘इंसान’। स्वयं के भाव ही भव प्रदान करते हैं। अन्य कोई न कष्ट देता है और न ही सुख देता है। जो भी सुख- -दुःख प्राप्त हो रहा है, वह स्वयं कृत कर्म का ही फल है ।
जिसे अपराध-बोध होता है वही क्षमा माँग सकता है। क्षमा वीरों का अभूषण है। क्षमा कुलीन मानवों का श्रृंगार है। क्षमा धर्म है। क्षमा आत्मोन्नति के लिए परमामृत है। क्रोध महा-ज्वाला है, शमा शीतल नीर है। क्षमा करने वाला ही श्रेष्ठ होता है, कोधी कमजोर ही होता है। क्रोधी क्रोध के आवेग में भोर-चोर अनर्थ करता है तामसिक भोजन करने वाला कषायवश होकर क्रोधादि में प्रवृत्ति करता है। भोजन स्वादिष्ट, सुन्दर, पौष्टिक, शुद्ध शाकाहारी। होना चाहिए। भोजन में उत्साह शक्ति होना चाहिए। व्यक्ति जैसा भोजन करता है, वैसे ही उसके परिणाम होते हैं। भोजन विषाक्त होगा तो परिणाम भी विकृत होंगे। भेष, भोजन और भाषा का भालों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। भावों को सँभालो, भावनाओं को सुधारो। हम स्वयं ही स्वयं के भविष्य-सृष्टा हैं । सभा का संचालन पंडित श्रेयांस जैन ने किया।सभा मे प्रवीण जैन, अतुल जैन, सुनील जैन,दिनेश जैन, वरदान जैन, राकेश सभासद, विनोद एडवोकेट,धन कुमार जैन, धनेंद्र जैन, सतीश जैन, अशोक जैन, मनोज जैन,पुनीत जैन आदि उपस्थित थे ।