बड़ौत – दिगम्बराचार्य श्री विशुद्धसागर जी गुरुदेव ने धर्मसभा में सम्बोधन करते हुए कहा कि- “जब-जब हमारा चित्त दूसरों में जाता है, तब-तब अशांति का वेदन होता है । जितना जितना चित्त बाह्य में जाएगा, उतना उतना आनन्द भंग होगा। बाह्य में अशांति ही है, अन्तर्मुखी दृष्टि ही सर्व-श्रेष्ठ है। आत्मिक- गुणों के चिन्तन से ही सुख-शांति, आनन्द सम्भव है। आत्म- जागृति के अभाव में उत्कर्ष सम्भव नहीं । चिंता मत करो, चिंतन करो। चिंता सम्पूर्ण- रोगों की जड़ है। चिंता करने से ज्ञान का क्षय होता है, चिंता से बुद्धि है, चिंता से शारीरिक- बल नष्ट होता है। चिंता करने से सुन्दरता नष्ट होती है । चिंता से पाचन-तंत्र कमजोर होता है, शरीर दुर्बल हो जाता है और फिर चिंता करने वाला शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त करता है। सज्जनों को शीघ्र ही चिंता छोड़कर चिंतन करना चाहिए । चिंतनशील ही आत्म- विकास को प्राप्त करता है । धर्म ही श्रेष्ठ है । धर्म ही मंगल है । धर्म ही उत्तम है । धर्म ही शरण है। धर्म ही मित्र है। धर्म ही कल्याणकारी है। धर्म ही उत्तम-सुख को प्रदान करने वाला है। धर्मोपदेश ही परम-अमृत है। धर्म ही हितकारी है ।
भोग ही. दुःख को प्रदान करते हैं। योग मुक्ति का साधन है। एक-एक इन्द्रिय के भोग भी जीवों को मृत्यु के कारण बन जाते हैं, फिर जो पाँचों इंद्रियों से भोग भोगे उसकी पीड़ा का क्या कहना ? रसना वश मछली जाल में फंसती है और मरण को प्राप्त करती है । पक्षी दाना चुगने के लोभ में जाल में फंसता है और फिर उसे पिंजड़े में कैद होना पड़ता है । भ्रमर सुगंध लेने आता है और फिर पुष्प में (फूल) में ही मरण प्राप्त करता है। नाग बीण की मधुर तान सुनकर सपेरे के वश में होकर परतंत्र हो जाता है। मनुष्य पांचों इन्द्रियों से भोग भोगकर कष्ट को प्राप्त होता है।आत्मज्ञान ही उत्कृष्ट तीर्थ है। आत्मज्ञानी ही सिद्धि, सुख,शांति, आनन्द को प्राप्त करता है।