ज्ञानतीर्थ पर बताया कि अहंकार क्यों होता है
मुरेना – हमें जीवन में कभी भी अहंकार नहीं करना चाहिए । अज्ञानता के वशीभूत होकर मनुष्य अपने आपको सर्वश्रेष्ठ मानने लगता है, तो उसे अहंकार की संज्ञा दी जाती है। अपने गुणों को ही संसार में सर्वश्रेष्ठ समझकर औरों को दीन, हीन, नीच, कमजोर समझना और देखना अहंकार की श्रेणी में आता है । उक्त विचार सप्तम पट्टाचार्य श्री ज्ञेयसागर महाराज ने ज्ञानतीर्थ जैन मंदिर में धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए । आचार्य श्री ने कहा कि जैन दर्शन में हमारे आचार्यों ने आठ मद बताए हैं, किसने मनुष्य को अहंकार होता है । यदि व्यक्ति अधोगति के संसार भ्रमण से बचना चाहता है तो उसे इन मदो का त्याग करना होगा । मनुष्य को पद, रूप, कुल, धन, बल, प्रभुता, ज्ञान एवम जाति के मद से अहंकार होता है । इन सबसे हमें बचना चाहिए । यह मद हमें इस संसार में जन्म मरण के रूप में भटकाते रहते हैं और हमें नरक अथवा तिर्यच गति में ले जाते हैं । इसलिए हमें इनका त्यागकर अपने जीवन में सरलता लाकर, जनहित के कार्य करते हुए आत्म पथ पर आगे बढ़ना चाहिए । जिससे हमारी मनुष्य पर्याय सार्थक हो सकें। अहंकार से हमेशा नुकसान होता है, विनाश होता है । रामायण में रावण की पत्नी मंदोदरी ने रावण से कई बार विनती की, कि वह भगवान राम की पत्नी सीता को सम्मान के साथ वापस कर दे। और अपने किए की माफी मांग ले। लेकिन रावण अपने अहंकार के वशीभूत होकर अपनी पत्नी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उसे यह अहंकार था कि वह विश्व विजेता है । उसका यह बंदरों की सेना और भगवान राम कुछ नहीं बिगाड़ सकते। ब्रह्मांड में कोई इतना बलशाली नहीं है जो उसे हरा सके उसको यह अहंकार था। आप सभी उसके परिणाम से परिचित हैं । इसी प्रकार महाभारत में श्री कृष्ण ने धृतराष्ट्र के दरबार में दुर्योधन की उपस्थिति में संधि का प्रस्ताव रखा। निवेदन किया कि यदि पांडवों को 5 गांव ही दे दिए जाएं तो युद्ध टल सकता है । लेकिन अहंकार के वशीभूत दुर्योधन ने उनको सुई की नोक के बराबर भी जमीन देने से इनकार कर दिया। परिणाम स्वरूप महाभारत जैसा विशाल युद्ध हुआ जिसमें करोड़ों लोग मारे गए । ज्ञानज्ञेय वर्षायोग समिति के सह संयोजक अनूप भंडारी ने बताया कि ज्ञानतीर्थ जैन मंदिर में आचार्य श्री के ससंघ सान्निध्य में प्रतिदिन अभिषेक, शांतिधारा एवम पूजन के साथ साथ छहढाला की क्लास लगती है ।