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ना पैसा था, ना कलाकार थे, फिर भी सत्यजीत रे ने बना डाली भारत की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘पथेर पांचाली’

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भारतीय सिनेमा से सफर में मील का पत्थर साबित हुई फिल्म ‘पथेर पांचाली’ (Pather Panchali) एक बार सुर्खियों में हैं. ब्रिटिश मैगजीन साइट एंड साउंड (Sight and Sound) की ओर से जारी 100 बेहतरीन फिल्मों की ताजा सूची में जगह पाने वाली ‘पथेर पंचाली’ एकमात्र हिंदी फिल्म है.

26 अगस्त 1955 में रिलीज हुई इस फिल्म को बनाने में सत्यजीत रे (Satyajit Ray) ने जान लगा दिया था. जब फिल्म बनी थी तो ना आज की तरह सुविधा थी ना ही फिल्ममेकर के पास पैसा ही था. बावजूद इसके आज भी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री एक भी ऐसी फिल्म नहीं पाई है, जो ‘पथेर पांचाली’ की टक्कर ले सके.

सत्यजीत रे को ‘पथेर पंचाली’ बनाने में करीब 3 साल का समय लगा था. फिल्म में ज्यादातर नए एक्टर्स और अनुभवहीन क्रू मेंबर्स थे. फिल्म का साउंडट्रैक मशहूर सितारवादक रवि शंकर ने बनाया था. इस फिल्म का प्रीमीयर 3 मई 1955 में न्यूयॉर्क में एक प्रदर्शनी के दौरान किया गया था. सत्यजीत रे की पहली फिल्म ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तब भी मशहूर किया था, आज भी किया है. इस फिल्म को बनाना उनके लिए आसान नहीं था.

‘पथेर पंचाली’ मेकिंग का किस्सा

सत्यजीत रे शुरुआती दौर में ब्रिटिश विज्ञापन एजेंसी में बतौर जूनियर विजुअलाइजर काम करते थे. इसी दौरान विभूति भूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास ‘पथेर पंचाली’ को चित्रित करने का मौका मिला. उस समय तक सत्यजीत रे ने बांग्ला साहित्य का कुछ खास नहीं पढ़ा था. इस उपन्यास ने उनके दिल में एक गहरी छाप छोड़ी थी. इसी दौरान सत्यजीत रे ने फिल्म बनाने की ठान ली. धीरे-धीरे सत्यजीत रे अंग्रेजी और बांग्ला दोनों में समाचार पत्रों और मैगजीन में लिखने लगे, स्क्रिप्ट भी लिखना शुरु किया. 1949 में फ्रांसीसी फिल्म डायरेक्टर जीन रेनायर अपनी फिल्म ‘द रिवर’ के लोकेशन रेकी के लिए आए तो सत्यजीत उनसे मिलने होटल पहुंच गए. मुलाकात हुई फिर उनके साथ फिल्म के लोकेशन की तलाश में भी जाते. सिनेमा के बारे में सत्यजीत रे का ज्ञान और उत्साह देखकर जीन ने पूछा कि क्या फिल्ममेकर बनना चाहते हैं तो सत्यजीत रे को आश्चर्य हुआ और पथेर पांचाली को लेकर अपने दिल की बात बता दी.

ट्रेंड एक्टर्स और मेकर्स भी नहीं थे

जीन रेनायर ने कोलकाता और आसपास के इलाके में अपनी फिल्म की शूटिंग शुरू की और सत्यजीत के कई दोस्तों को क्रू मेंबर के तौर पर शामिल किया. सत्यजीत को फिल्म का हिस्सा न बन पाने का मलाल रहा ,क्योंकि उनकी फर्म ने आर्ट डायरेक्टर बना कर उन्हें लंदन भेज दिया था. 16 दिन की समुद्री यात्रा के दौरान ही सत्यजीत रे ने ‘पथेर पंचाली’ फिल्म बनाने की योजना तैयार कर ली. लंदन में कई विदेशी फिल्में देखी और जब 1950 में भारत लौटे तो ‘पथेर पंचाली’ का खाका तैयार था. अपने दोस्तों को इकट्ठा किया, सुब्रत मित्रा को सिनेमैटोग्राफर, अनिल चौधरी को प्रोडक्शन कंट्रोलर और बंसी चंद्रगुप्ता को आर्ट डायरेक्टर बनाया. अब चाहिए था धन, कोई फिल्म में पैसा लगाने के लिए तैयार नहीं था.

‘पथेर पंचाली’ के लिए पत्नी के गहने गिरवी रखे

निर्माता की तलाश करने में करीब 2 साल गुजर गए. हार कर एक छोटा चंक शूट करने का फैसला किया. अपनी बीमा पॉलिसी और दोस्तों-रिश्तेदारों से पैसे उधार लिए. रविवार को शूट करते क्योंकि अभी भी विज्ञापन एजेंसी में काम कर रहे थे. आखिर में साल 1953 में प्रोड्यूर राणा दत्ता मिले, जिसने थोड़ी मदद की. बिना सैलरी के सत्यजीत रे ने एक महीने की छुट्टी ली और फिल्म की शूटिंग शुरु कर दी. पैसे की कमी बीच में आई तो अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखे तो कुछ दिन काम चल गया. करीब 4 हजार फीट बनी फिल्म जितने भी निर्माताओं को सत्यजीत ने दिखाया, सभी ने ठुकरा दिया. आखिर में किसी की सलाह से पश्चिम बंगाल सरकार से संपर्क किया और धन की व्यवस्था हुई.

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी हो गए थे मुग्ध

26 अगस्त 1955 में जब ‘पथेर पंचाली’ कोलकाता में रिलीज हुई तो दो हफ्ते मामूली प्रदर्शन किया लेकिन तीसरे हफ्ते तक सिनेमाघर दर्शकों से खचाखच भर गया. फिल्म की अपार सफलता हासिल हुई. जब इस फिल्म को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देखा तो इतने प्रभावित हुए कि आधिकारिक प्रविष्टि के रुप में फिल्म को कान फिल्म फेस्टिवल में दिखाए जाने की व्यवस्था की. इस फिल्म ने फेस्टिवल में बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट का विशेष पुरस्कार जीता. इसके बाद तो फिल्म को देश-विदेश में ढेरों पुरस्कार मिले.

‘पथेर पंचाली’ फिल्म की कहानी

‘पथेर पंचाली’ की कहानी बंगाल के निश्चिंदीपुर गांव और वहां के मामूली गृहस्थ हरिहर राय के परिवार की है. वह एक पुजारी का काम करते हैं लेकिन खुद को कवि और नाटककार के रुप में देखते हैं. हरिहर की चचेरी विधवा बहन इंदिरा भी रहती है. इसके अलावा पत्नी सर्बजाया, बेटी दुर्गा और अपु हैं. कमाई कम होने की वजह से पत्नी नहीं चाहती है कि इंदिरा घर में रहे. अपू और दुर्गा गरीबी से अनजान अपने बचपन की शैतानियों में खुशहाल जीवन बिता रहे थे. ये उम्मीद भी थी कि कुछ अधिक आमदनी हो तो जीवन पटरी पर आए. हालात ऐसे हो जाते हैं कि अपु को अपने परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है. लड़कपन से युवावस्था, संसार में जीने की कला और नियती, सामाजिक मूल्यों का पलायन, जैसी समस्याओं को लेकर एक ऐसा कथानक पर्दे पर रचा गया जो आज भी विदेश में डंका बजा रहा है.