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देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर’ को चरितार्थ करती हैं ‘इमोजी’ की लघुकथाएँ

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छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. शैल चंद्रा किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनकी हिंदी व छत्तीसगढ़ी में विभिन्न विधाओं की रचनाएँ स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। जीवन के विभिन्न रंगों को अपने में समेटे हुए डॉ. शैल चंद्रा की 118 लघुकथाओं का एक अनूठा संगम है – इमोजी। उनका यह पाँचवाँ लघुकथा संग्रह वैभव प्रकाशन, रायपुर से प्रकाशित हुआ है।
‘इमोजी’ की हर कथा संक्षिप्त, मनोरंजक, सार्थक एवं इंसानी स्वभाव के उज्ज्वल पक्ष की पक्षधर है, जो सुधी पाठकों के अंतर्मन को भले-बुरे का एहसास कराती हुई जीवन-पथ पर सतत आगे बढ़ने के लिए मार्ग-प्रशस्त करती है। बस ज़रूरत है, तो सिर्फ़ पठन के साथ ही साथ मनन करते हुए सकारात्मक सोच के साथ उसे अपने व्यवहार में लाने की। लघुकथा साहित्य में अभिव्यक्ति की नवीनतम और लोकप्रिय विधा है, जो आकार में छोटी है, परन्तु अपनी बात कम से कम शब्दों में कहने में पूरी तरह से सक्षम है। यह कवि बिहारी के दोहों की तरह ‘देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर’ को चरितार्थ करती है। डॉ. शैल चंद्रा ने अपनी बात इसी विधा में कहने का सफल प्रयास किया है। इस संग्रह की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुधीर शर्मा ने लिखी है।
डॉ. शैल चंद्रा ने अपनी लघुकथाओं के लिए विषय का चयन अपने परिवेश से ही किया है। उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त सामाजिक विद्रूपताओं के अलावा उच्च अधिकारियों द्वारा आम आदमी के शोषण, भ्रष्टाचार, मानवीय संबंध, कोरोना से उपजी त्रासदी, मोबाइल का बढ़ता चलन, सामाजिक सरोकार, कथनी-करनी भेद, उच्च वर्ग की सम्पन्नता तथा निम्न वर्ग के संघर्षमय जीवन का बहुत ही सरल तथा सजीव रूप से सुन्दर चित्रण किया है। इनके पात्र कहीं भी वायवीय या काल्पनिक नहीं, बल्कि अपने आसपास के ही प्रतीत हो रहे हैं।
डॉ. शैल चंद्रा समाज में व्याप्त मूल्यहीनता, मानवाधिकारों के हनन, बाह्याडंबर, आर्थिक सामाजिक, राजनैतिक, एवं नैतिक विडम्बनाओं पर सीधे-सीधे प्रहार करती हैं। ये लघुकथाएँ जहाँ मानवीय मूल्यों के ह्रास का चित्रण करती हैं, वहीं पाठकों को नए सिरे से सोचने पर विवश भी कर देती हैं। यथा उनकी लघुकथा ‘पुण्य फल’ की ये पंक्तियाँ, “हमने तो भई ऑनलाइन पूजा करवा रखी है। कम खर्च में पूरा पुण्य मिलता है।”
डॉ. शैल चंद्रा की लघुकथाएँ कमोबेश रूप से यथार्थ के बहुआयामी पक्षों को संकेत करती हैं, जिनमें व्यंग्य की व्यंजना तथा अर्थ की दूरगामी व्यंजना का समावेश इस प्रकार होता है कि वह खुले अंत की ओर संकेत करती हैं। उनकी लघुकथाएँ जिस शिद्दत के साथ आज के यथार्थ को एक रचनात्मक संदर्भ देती हैं, वह उनके सुदीर्घ अनुभव, ज्ञान एवं संवेदना के उचित समायोजन का प्रतिफल प्रतीत होता है। संग्रह की लघुकथाएँ पाठकों के समक्ष कई बड़े प्रश्न भी उठाती हैं। यूँ तो सीमित कलेवर वाली लघुकथा में परिवेश के चित्रण की ज्यादा संभावना नहीं रहती, परंतु उन्होंने अपनी कई लघुकथाओं में बहुत ही सुंदर रूप में परिवेश का चित्रण कर दिया है। विषयों की विविधता इस बात का सूचक है कि उनकी नजर हर संवेदना पर टिकी है और उन्होंने हर अनुभूति को शब्दों में पिरोने का प्रयास किया है।
संग्रह की लघुकथाओं में उनके मानवीय मूल्यों की झलक दिखाई देती है, जिन्हें पठनोपरांत इनकी सम्प्रेषणीयता पाठक के अंतर्मन की गहराई तक उतर जाती है। यथा उनकी लघुकथा ‘पाँचवाँ आश्रम’ की ये पंक्तियाँ, “पहले हमारे धर्म में चार आश्रम थे, अब समाज में पाँचवाँ आश्रम वृद्धाश्रम का चलन देखने में या रहा है। बेटे अपने वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम में पहुंचा आते हैं। बस मेरी इच्छा है कि मैं वृद्धाश्रम न जाकर इस घर को वृद्धाश्रम बना दूँ, ताकि घर से निकाले गए उपेक्षित को मैं सहारा डे सकूँ।”
उनकी अनेक लघुकथाओं में जहाँ भावनात्मक रिश्तों की ज़मीन दरक रही है, वहीं उसके उजले अध्याय भी हैं। यथा लघुकथा ‘हाइटेक संवेदना’ की ये पंक्तियाँ, “अब संवेदनाएं लोगों के मन में नहीं, मोबाइल के इस फ़ेसबुक, व्हाट्सअप या इसके जैसे कई एप में सिमट कर रह गई है।”
डॉ. शैल चंद्रा की भाषा काफी लचीली है, जिसमें वे बातचीत के अंदाज में ही अपनी बात कहते चले गए हैं। सामान्य शब्दों के साथ-साथ उन्होंने कहीं-कहीं भारी भरकम शब्दों का भी प्रयोग किया है, जिनका पर्याय आम बोलचाल के शब्दों में भी उपलब्ध है। यथा उनकी लघुकथा ‘सच्चा तर्पण’ की ये पंक्तियाँ, “मैं पितरों के श्राद्ध-तर्पण में विश्वास नहीं करती। मरने के बाद क्या पता, हमारे पितरों को खीर, पूरी मिलती भी है नहीं। मैं तो बुजुर्गों की देखरेख में विश्वास करती हूँ। हमारे बुजुर्गों को जीते जी उनकी पसंद का खिला-पिला दो, उनकी हर इच्छा पूरी कर दो, बस यही सच्चा श्राद्ध होगा।”
डॉ. शैल चंद्रा की लघुकथाएँ भ्रष्ट सरकारी तंत्र, राजनीतिक कुचक्र और उनमें फँसे एक आम आदमी की पीड़ा की सार्थक अभिव्यक्ति है। यथा, “सत्ता का नशा शराब से बढ़कर होता है। तभी तो सारे नेता मंत्री सत्ता के नशे में चूर होकर आम जनता को भुला देते हैं।” …. “जहाँ हमारी भलाई की बात हो वहाँ किसी और की भलाई मायने नहीं रखती। फिर हम मंत्री क्यों बने हैं, बताओ तो ? हमें अपना कल भी तो देखना है।”
आशा ही नहीं, मुझे पूरा विश्वास है कि ये सहज, सरल एवं सारगर्भित लघुकथाएँ निश्चित रूप से सुधी पाठकों के मानस पटल पर अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब होंगी और लोगों में खंडित हो रहे मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगेगी।
डॉ. शैल चंद्रा चूंकि कहानियां भी लिखती हैं। इसका प्रभाव उनकी लघुकथाओं में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। वे बड़ी सहजता से किसी ज्वलन्त समस्या को उठाती हैं और उसके निराकरण का संकेत भी अपनी लघुकथाओं में बिना किसी उपदेश के कर देती हैं। इस संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ सशक्त है। पुस्तक की डिजाईन और साज-सज्जा पर विशेष ध्यान दिया गया है। आवरण पृष्ठ खूबसूरत है। मुद्रण भी साफ-सुथरा है। व्याकरणिक और वर्तनीगत अशुद्धियाँ भी नगण्य हैं।
आशा है लघुकथा पाठकों एवं शोधार्थियों के बीच समीक्ष्य यह संग्रह लोकप्रिय होगा और लघुकथा साहित्य की श्रीवृद्धि करेगा। डॉ. शैल चंद्रा जी को इस बेहतरीन संग्रह के लिए हार्दिक बधाई।