पारसोला। पंचम पट्टाघीश आचार्य श्री वर्धमान सागर जी 34 साधुओं सहित पारसोला नगर में वर्षायोग हेतु विराजित हैं ।आज की धर्म सभा में उपदेश में आचार्य श्री ने बताया कि आत्महत्या करना पाप है ,आजकल छोटी-मोटी बातों पर परिवार में लोग आत्महत्या कर लेते हैं। आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज ने संयम जीवन में धर्मपूर्वक जीवन का यापन किया। साधना पूर्वक जीवन को जिया। शारीरिक बल काफी था किंतु नेत्र ज्योति कमजोर , मोतियाबिंद होने के कारण उन्होंने इलाज नहीं कराया और संल्लेखना धारण की। संसारी प्राणी नेत्रवान होकर भी नेत्रहीन है, दैनिक कार्यों में कितने जीवों का घात होता है। आचार्य श्री को जीवन का मोह नहीं था ,उन्हें जीवन पर विश्वास था वह सुनते सब की थे ,किंतु वह आत्मा की बात को मानते थे। जीवन में संयम को धर्म का अंग मानकर पालन करने वाले आत्मा पर विश्वास रखते हैं। आचार्य श्री ने मोतियाबिंद का ऑपरेशन नहीं कराया मरण को धर्ममय बनाकर सु मरण किया। संल्लेखना धारण कर शरीर और कषायो को क्रश किया ,उपवास से शरीर क्रश होता है और आत्मा में कर्म और कषायो को व्रत उपवास से क्रश किया जाता है। कषाय पर विजय प्राप्त करने पर ही संलेखना सफल होती है। जीवन में परिणाम निर्मल होना चाहिए। कषाय जीवन में बाधक है । ब्रह्मचारी गज्जू भैया एवं राजेश पंचोलिया अनुसार आचार्य श्री ने प्रवचन में बताया कि कटनी में प्रथमाचार्य श्री शांति सागर जी का वर्षायोग होना था कटनी में हर 3 वर्ष में फ्लैग , हैजा की बीमारी होती थी कटनी समाज ने संघपति से आचार्य श्रीसंध की सुरक्षा को लेकर निवेदन किया की वर्षा योग नहीं करा सकते हैं किंतु आचार्य श्री का तपबल इतना था कि उनके नगर प्रवेश के पहले ही वह बीमारी नगर छोड़कर चली गई। यही नहीं उस वर्षायोग के बाद कभी भी कटनी शहर में फ्लैग या हैजा की बीमारी नहीं हुई। आचार्य श्री ने बताया कि संयोग है कि 18 सितंबर 1955 को आचार्य शांति सागर जी की समाधि हुई और 18 सितंबर 1950 को हमारा जन्म हुआ। महानायक ,महाश्रमण के जीवन चरित्र को समझ कर उनके जीवन का धर्म सहित पालन करें। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र रत्नत्रय से संसार समुद्र को पार कर मनुष्य जीवन को सार्थक करें। संसारी प्राणी के खान-पान परिणाम खराब होने से शरीर रोगी रहता है श्रम करने से शरीर निरोगी रहता है। प्रवचन के पूर्व पूर्वाचार्यों के चित्र का अनावरण कर दीप प्रज्वलन किया गया ।आचार्य श्री की पूजन हुई आचार्य श्री के बाहर से पधारे अतिथियों द्वारा चरण प्रक्षालन कर जिनवाणी भेंट की गई।