Home वाराणसी उपसर्ग विजेता भगवान पार्श्वनाथ का प्रेरणादायक

उपसर्ग विजेता भगवान पार्श्वनाथ का प्रेरणादायक

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वाराणसी। भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म के तेइसवें (23वें) तीर्थंकर हैं। भगवान पार्श्वनाथ का मोक्ष कल्याणक देश में हर वर्ष श्रावण शुक्ला सप्तमी को श्रृद्धा भक्ति में मनाया जाता है। आज से 2800 वर्ष पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने मोक्ष पद प्राप्त किया।इस दिन जैन मंदिरों में मोक्ष कल्याणक के प्रतीक स्वरूप निर्वाण लाडू चढ़ाया जाता है। इस पवित्र दिन को मोक्ष सप्तमी के नाम से जाना जाता है। भगवान पार्श्वनाथ की मोक्ष स्थली जैन तीर्थ श्री सम्मेद शिखर जी झारखंड राज्य स्थिति पारसनाथ पहाड़ पर स्वर्ण भद्र कूट से तपस्या कर भगवान मोक्ष पधारे थे। मोक्ष सप्तमी के दिन जैन अजैन देश विदेश से लाखों श्रृद्धालु यहाँ आकर स्वर्ण भद्र कूट के दर्शन कर यहाँ निर्वाण लाडू चढ़ाते हैं।जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान में काल चक्र का अवरोही भाग, अवसर्पिणी गतिशील है और इसके चौथे युग में २४ तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 2900वर्ष पूर्व वाराणसी में हुआ था। वाराणासी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्‍ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर सर्पचिह्म था। वामा देवी ने गर्भकाल में एक बार स्वप्न में एक सर्प देखा था, इसलिए पुत्र का नाम ‘पार्श्व’ रखा गया। उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। एक दिन पार्श्व ने अपने महल से देखा कि पुरवासी पूजा की सामग्री लिये एक ओर जा रहे हैं। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि एक तपस्वी जहाँ पंचाग्नि जला रहा है, और अग्नि में एक सर्प का जोड़ा मर रहा है, तब पार्श्व ने कहा— ‘दयाहीन’ धर्म किसी काम का नहीं’। तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था और जैनेश्वरी दीक्षा ली थी और वे ब्रह्मचारी अविवाहित थे।काशी में 83 दिन की कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। जैन दर्शन के प्रकांड विद्वान निर्मल कुमार जैन विदिशा द्वारा हाल ही में प्रकाशित पुस्तक “भारतीय इतिहास में श्रमण संस्कृति का योगदान भाग 1” मैं लिखा है भगवान पार्श्वनाथ को केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात 69 वर्ष 7 माह तक धर्मचक्र प्रवर्तन कर तीर्थंकर पद को सार्थक किया। पार्श्वनाथ के समवशरण में 16000 दिगंबर मुनि, जिनमें 10 गणधर, 350 अंगों के ज्ञाता थे। 1000 केवल ज्ञान से संपन्न मुनिराज थे, 750 मन:पर्यज्ञान के धारी मुनिराज, 1000 मुनि विकृति के धारक मुनि थे। 600 वादी मुनिराज थे। उन्नीस सौ शिक्षक उपाध्याय पद के धारी थे। सुलोचना आदि 36000 आर्यिकाएँ थी। जो अपने कल्याण के साथ ही जीवों के कल्याण में सहयोगी बनी। पुंड़्र, ताम्रलिप्त आदि अनेक देशों में उन्होंने भ्रमण किया। ताम्रलिप्त में उनके शिष्य हुए। पार्श्वनाथ ने चतुर्विध संघ की स्थापना की, जिसमे मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका होते है और आज भी जैन समाज इसी स्वरुप में है। “भारतीय इतिहास में श्रमण संस्कृति का योगदान” पुस्तक में श्री निर्मल कुमार जैन ने लिखा है 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के काल में जैन प्रतिमा थी। भगवान पार्श्वनाथ के काल में किसी कोबरा देवी ने एक मंदिर बनवाया था मूर्ति निर्माण एवं मूर्ति पूजा का इसी प्रकार भगवान पार्श्वनाथ के काल का एक और साक्ष्य आज भी विद्यमान है भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात जंतिपुर उड़ीसा नरेश करकंडू ने तेरापुर गुफाओं में गुहा मंदिर (लयण)बनवाएं और उनमें पारसनाथ तीर्थंकर की पाषाण की प्रतिमा विराजमान कराई। यह लयण और प्रतिमा अब तक विद्यमान हैं। लगभग ऐसा ही उल्लेख प्रमुख इतिहासज्ञ डॉक्टर ज्योति प्रसाद जैन ने भी किया है।केवल ज्ञान के पश्चात तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने जैन धर्म के चार मुख्य व्रत – सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह की शिक्षा दी थी। अंत में अपना निर्वाणकाल समीप जानकर श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ की पहाड़ी जो झारखंड में है) पर चले गए जहाँ श्रावण शुक्ला सप्तमी को उन्हे मोक्ष की प्राप्ती हुई। भगवान पार्श्वनाथ की लोकव्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों और चिह्नों में पार्श्वनाथ का चिह्न सबसे ज्यादा है। भारत में सबसे ज्यादा जैन मंदिर भगवान पार्श्वनाथ के है। आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियाँ देश भर में विराजित है। जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी जैन धर्म विशेष रूप से भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। जैन ग्रंथों में तीर्थंकर पार्श्‍वनाथ के नौ पूर्व जन्मों का वर्णन हैं।

पहले जन्म में ब्राह्मण, दूसरे में हाथी, तीसरे में स्वर्ग के देवता, चौथे में राजा, पाँचवें में देव, छठवें जन्म में चक्रवर्ती सम्राट और सातवें जन्म में देवता, आठ में राजा और नौवें जन्म में राजा इंद्र (स्वर्ग) तत्पश्चात दसवें जन्म में उन्हें तीर्थंकर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलत: वे तीर्थंकर बनें।राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा के अनुसार पार्श्वनाथ जैनों के तेईसवें तीर्थंकर है। इनका जन्म अरिष्टनेमि के एक हज़ार वर्ष बाद इक्ष्वाकु वंश में पौष माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को विशाखा नक्षत्र में वाराणसी में हुआ था। इनकी माता का नाम वामा देवी और पिता का नाम राजा अश्वसेन था। इनके शरीर का वर्ण नीला जबकि इनका चिह्न सर्प है। पार्श्वनाथ के यक्ष का नाम पार्श्व और यक्षिणी का नाम पद्मावती देवी था। जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार भगवान पार्श्वनाथ के गणधरों की कुल संख्या 10 थी, जिनमें आर्यदत्त स्वामी इनके प्रथम गणधर थे।इनके प्रथम आर्यिका का नाम पुष्पचुड़ा था।पार्श्वनाथ ने पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को वाराणसी में दीक्षा की प्राप्ति की थी। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् दो दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया।पार्श्वनाथ 30 साल की अवस्था में सांसारिक मोहमाया और गृह का त्याग कर संन्यासी हो गए थे। 84 दिन तक कठोर तप करने के बाद चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को वाराणसी में ही ‘घातकी वृक्ष’ के नीचे इन्होनें ‘कैवल्य ज्ञान’ को प्राप्त किया। एक कथा के अनुसार एक दिन कुमार पार्श्व वन-क्रीडा के लिए गंगा के किनारे गये। जहाँ एक तापसी पंचग्नि तप कर रहा था। वह अग्नि में पुराने और पोले लक्कड़ जला रहा था। पार्श्व की पैनी दृष्टि उधर गयी और देखा कि उस लक्कड़ में एक नाग-नागिन का जोड़ा है और जो अर्धमृतक-जल जाने से मरणासन्न अवस्था में है। कुमार पार्श्व ने यह बात तापसी से कही। तापसी झुंझलाकर बोला – ‘इसमें कहाँ नाग-नागिन है? और जब उस लक्कड़ को फाड़ा, उसमें मरणासन्न नाग-नागिनी को देखा। पार्श्व ने ‘णमोकारमन्त्र’ पढ़कर उस नाग-नागिनी के युगल को संबोधा, जिसके प्रभाव से वह मरकर देव जाति से धरणेन्द्र पद्मावती हुए। जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ की अधिकांश मूर्तियों के मस्तक पर जो फणामण्डल बना हुआ देखा जाता है वह धरणेन्द्र के फणामण्डल मण्डप का अंकन है, जिसे उसने कृतज्ञतावश योग-मग्न पार्श्वनाथ पर कमठ द्वारा किये गये उपसर्गों के निवारणार्थ अपनी विक्रिया से बनाया था। जैन ग्रंथों में उल्लेख है कमठ से पार्श्वनाथ का बैर (दुश्मनी) लगातार दस जन्म तक चलती रही। राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा के अनुसार राजकुमार पार्श्व ने लकड़ी में नाग नागिन की रक्षा की उपर्युक्त घटना से प्रतीत होता है कि पार्श्व के समय में कितनी मूढ़ताएं-अज्ञानताएं धर्म के नाम पर लोक में व्याप्त थीं।पार्श्वकुमार इसी निमित्त को पाकर विरक्त हो प्रव्रजित हो गये, न विवाह किया और न राज्य किया। कठोर तपस्या कर तीर्थंकर केवली बन गये और जगह-जगह पदयात्रा करके लोक में फैली मूढ़ताओं को दूर किया तथा सम्यक् तप, ज्ञान का सम्यक् प्रचार किया। अन्त में बिहार प्रदेश में स्थित सम्मेद-शिखर पर्वत से, जिसे आज ‘पार्श्वनाथ हिल’ कहा जाता है, तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने मुक्ति-लाभ किया।इनकी ऐतिहासिकता के प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं और उनके अस्तित्व को मान लिया गया है।प्रसिद्ध दार्शनिक सर राधाकृष्णन ने भी अपने भारतीय दर्शन में इसे स्वीकार किया है।
पार्श्वनाथ जैनों के 23वें तीर्थंकर गिने जाते हैं, जिनका निर्वाण पारसनाथ पहाड़ पर हुआ था, जो हज़ारीबाग़ के दक्षिण-पूर्व 448 फीट ऊंचा पहाड़ है।
नोट:-लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष है।
विजय कुमार जैन