जैन धर्म मैत्री प्रधान धर्म है।
श्रावक धर्म प्रधान कहा, जीवन में वरदान कहा।
दान और पूजा करना अहो आत्म सम्मान कहा ।।
आगम चर्या ही, गृहीधर्म कहाये रे।
जीवन है पानी की बूँद कब मिट जाये।
नई दिल्ली | जो धर्म के मार्ग पर चलता है वो अपने मार्ग में फूल बिछाता जाता है जो अधर्म के मार्ग पर चलता है वी अपने मार्ग में कॉटे बिछाता जाता है। जब तक वीतराग चारित्र की जीव धारण नहीं करता, तबतक पुनः पुनः लौटकर उसी मार्ग पर आना पड़ता है। अगर आप अधर्म का आश्रय लेते हैं तो पुनः जब उस मार्ग पर आयेंगे तो राह में काँटे प्राप्त होगे. दुख और प्रतिकूलताये प्राप्त होती हैं। और अगर आप धर्म मार्ग का आश्रय चमरते हैं तो पुनः इस मार्ग पर आने पर आपको फूल ही फूल राह में बिछे मिलेंगे। अर्थात आपकी पग – पग पर अनुकूलतायें एवं सफलतायें प्राप्त होगी उक्त उद्गार परमपूज्य जिनागम पंथ प्रवर्तक आदर्श महाकवि भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराक ने कृष्णानगर जैन मंदिर में धर्म सभा को संबोधित करते हुये व्यक्त किये।
जैन कुल में जन्म लेना,सुन्दर,स्वस्थ शरीर का प्राप्त होना ये पूर्व के पुण्योदय से प्राप्त हुये हैं। अब आप इन अनुकूलताओं का कितना लाभ ले पा रहे हैं। ये चिन्तन का विषय है। जैन कुल में जन्म लेने के बाद श्रावक कुल में जन्म लेने के बाद श्रावक के योग्य आवश्यक मूल कर्तव्य दान और पूजा करना इस कुल की,इस पर्याय की सार्थकता है। आचार्य श्री ने कहा कि जब सुबह आँख खुले तो सिर्फ परमात्मा का स्मरण हो,परमात्मा के प्रति धन्यता के भाव भरे हो कि प्रभु । आपके प्रसाद से आज मुझे पुनः जीवन प्राप्त हुआ है,मैं सर्वप्रथम अब आपका दर्शन पूजन अभिषेक करूँगा।’
अपने प्रयोजन के अनुसार ही हमारी क्रिया का फल प्राप्त होता है प्रयोजन अगर पाप का है तो शुम क्रिया भी पाप का बंध कराती है और यदि प्रयोजन पुण्य का हो,तो अशुभ क्रिया भी पुण्य का कारण बनेगी | प्रतिदिन आचार्य जी के मंगल प्रवचन ,प्रातः 8:०० बजे एवं गुरुभक्ति शाम 6:30 बजे |