नई दिल्ली । राजस्थान सरकार में कृषि और ग्रामीण मंत्री किरोड़ीलाल मीणा का अपने पद से इस्तीफा यूं ही नहीं आया है. कहने को तो पार्टी और खुद किरोड़ीलाल मीणा यही कह रहे हैं कि उन्होंने वादा किया था कि पूर्वी राजस्थान की 7 सीटों में से बीजेपी एक भी हारती है तो वह इस्तीफा दे देंगे. इसलिए वो इस्तीफा दे रहे हैं. इन सात सीटों में से बीजेपी 4 सीटें हार गई जिनमें दौसा, करौली-धौलपुर, टोंक-सवाई माधोपुर और भरतपुर सीट शामिल है. पर राजस्थान की राजनीति समझने वाला हर शख्स जानता है कि ये सिर्फ बहाना है. निशाना कहीं और है।
दरअसल, राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा से किरोड़ीलाल मीणा के संबंध खराब ही होते जा रहे थे. मंत्रिमंडल में मनपसंद विभाग न मिलने के चलते वो पहले से ही नाराज थे. पर दिक्कत यह है कि उनका इस्तीफा ऐसे समय आया है जब प्रदेश में कुछ ऐसी सीटों पर उपचुनाव होने हैं जहां का खेल मीणा के न होने के चलते पार्टी के लिए खराब हो सकता है. बीजेपी के लिए इस समय एक-एक जीत निर्णायक है. जिस तरह का माहौल बीजेपी के खिलाफ बन रहा है उसमें बीजेपी किसी भी शर्त पर एक और हार बर्दाश्त नहीं कर सकती है. पर मीणा के इस्तीफे से अगर पार्टी सबक ले लेती है तो कम से कम यूपी-बिहार और अन्य राज्यों में जो असंतोष पल रहा है उनके फूटने पर लगाम लग सकती है।
1-पार्टी में अब असंतोष फूटकर बाहर आने लगा है
मीणा का रिजाइन इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह बहुत से अन्य असंतुष्टों के लिए रास्ता खोल सकता है. अब तक करीब हर राज्य में पार्टी में असंतोष होने के बावजूद मामला इस हद तक नहीं जाता था कि रिजाइन की नौबत आए. जाहिर है कि जब पार्टी और नेता मजबूत होता है तो हर तरह की गुटबंदी और कलह दबी रहती है. पर कहीं न कहीं कमजोर नेतृत्व और पार्टी की बढ़ती अलोकप्रियता गुटबाजी करने वाले नेताओं और असंतुष्टों के लिए प्राण-वायु साबित होती है. कोई भी पार्टी जब तक मजबूत नेतृत्व में रहती है और पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार बढता रहता है असंतुष्ट लोग अपना मुंह सिले रहते हैं.कांग्रेस लगातार बीजेपी के खिलाफ नरेटिव सेट करने में सफल साबित हो रही है. ऐसे में बीजेपी से लोगों का ही नहीं नेताओं का भी भरोसा कम होता जाएगा.ऐसे में बीजेपी को संभल कर हर कदम उठाना होगा।
मीणा मंत्रिमंडल के गठन के बाद से ही नाराज चल रहे थे. वो ग्रामीण विकास मंत्रालय से पंचायती राज और कृषि मंत्रालय से कृषि विपणन काटकर मंत्री बनाए जाने के चलते पहले दिन से ही ख़फा थे. इससे पहले अपने भाई जगमोहन मीणा को दौसा लोकसभा सीट से टिकट दिलवाने में भी वो असफल रहे थे. पर कोई फैसला लेने के लिए माहौल अनुरूप नहीं पा रहे थे. अब जब देश में लगातार पेपर लीक, ढहते पुल, ढहते एयरपोर्ट कैनोपी आदि से केंद्र सरकार घिरी हुई है तो जाहिर है कि असंतुष्टों का कॉन्फिडेंस बढ़ेगा ही।
राजस्थान के 5 विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होने हैं. देवली-उनियारा, दौसा, खींवसर, चौरासी और झुंझुनूं में बीजेपी अपने उम्मीदवारों के चयन की तैयारी कर रही है. किरोड़ी लाल मीणा बीजेपी में मीणा समुदाय के बड़े नेता हैं. उनके इस्तीफे से मीणा समुदाय के वोटर्स पर असर पड़ सकता है.मीणा को लेकर जो सबसे बड़ी बात सामने आ रही है वो यह है कि दिल्ली में बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें मिलने का समय दिया था इसके बावजूद मीणा की किसी से मुलाकात नहीं हुई. पूर्वी राजस्थान के किरोड़ी लाल मीणा दिग्गज नेता हैं. कई जिलों में उनका सीधा प्रभाव है. वह कई बार विधायक और सांसद रह चुके हैं, इसलिए निश्चित है कि उपचुनावों में उनके बिना बीजेपी की स्थिति और खराब हो सकती है।
किरोड़ीलाल मीणा के बयान उनकी मनः स्थिति को बयान करते हैं. रिजाइन की घोषणा सार्वजनिक करने से कुछ घंटे पहले उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का उदाहरण देते हुए कहा कि रेल हादसे में कई लोगों की जान जाने पर उन्होंने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेलमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था. ऐसी उच्च आदर्शों वाली राजनीति की आज आवश्यकता है. उन्होंने कहा कि आज राजनीति रसातल में जा चुकी है. यहां पर भारी भ्रष्टाचार है।
2-यूपी बीजेपी में भी सब कुछ ठीक नहीं है
उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी में भी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. जब तक बीजेपी मजबूत स्थिति में थी यह असंतोष बाहर नहीं निकल रहा था पर अब उनके पंख निकल रहे हैं. यूपी में भी करीब 10 सीटों पर उपचुनाव होने वाले हैं. पर पार्टी का अंतर्कलह उपचुनावों में हार का कारण बन सकता है. एक समय था कि उत्तर प्रदेश की विधानसभा में योगी आदित्यनाथ के विरोध में करीब सौ से अधिक विधायकों ने बिगुल बजा दिया था. पर वह भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता का चरम काल था. कोई भी खुलकर पार्टी के खिलाफ या किसी नेता के खिलाफ बोलने को तैयार नहीं होता था. पर आज परिस्थितियां बिल्कुल अलग हैं।
उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की हार के बाद पिछले हफ्ते कम से कम आधा दर्जन जिलों से ऐसी खबरें आईं हैं जिनमें भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने स्थानीय प्रशासन पर आरोप लगाया कि उनकी सुनवाई नहीं होती है उल्टे उन्हें परेशान किया जाता है. लखनऊ के हजरतगंज में प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी ने तो पुलिस की चेकिंग से परेशान होकर अपनी गाड़ी से बीजेपी का झंडा और प्रवक्ता लिखा बोर्ड ही हटा दिया था. कानपुर में एक बीजेपी नेता पार मामला दर्ज होने के बाद डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक ने पुलिस की चेकिंग पर ही सवाल खड़ा कर दिया यानि कि सीएम योगी आदित्यनाथ के आदेश पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया. चुनावों में मिली हार के बाद हुई पहली मंत्रिमंडल की बैठक में प्रदेश के दोनों डिप्टी सीएम ने बाहर रहकर ये संकेत दे दिया था उन्हें अपनी स्टाइल से राजनीति करनी है. यह नेतृत्व के कमजोर होने और पार्टी की बढ़ती अलोकप्रियता ही थी कि वेस्ट यूपी में पूर्व विधायक संगीत सोम और पूर्व मंत्री संजीव बालयान ने जमकर पार्टी की बैंड बजाई।
3-बिहार में डबल टेंशन
लोकसभा चुनाव नतीजे आए अभी एक महीने भी नहीं हुए कि बिहार एनडीए में सियासी रार छिड़ हुई है. पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे ने भारतीय जनता पार्टी इसकी अगुवाई कर रहे हैं. बक्सर के पूर्व सांसद चौबे ने कहा है कि बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आए और एनडीए की सरकार बने. उन्होंने मुख्यमंत्री के सवाल पर ये भी कहा- पार्टी में आयातित माल हम बर्दाश्त नहीं करेंगे. मुख्यमंत्री को लेकर फैसला केंद्रीय नेतृत्व करेगा. मतलब साफ है कि बिहार में एक तरफ तो डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी को लेकर दूसरी तरफ जेडीयू को लेकर बहुत से कंफरटेबल नहीं हैं।
नीतीश कुमार ने कुछ ही महीने पहले महागठबंधन से नाता तोड़ एनडीए में वापसी कर सरकार बनाई थी. नीतीश के सीएम पद की शपथ लेने के बाद उनकी ही सरकार में डिप्टी सीएम और बिहार बीजेपी के अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने कहा था- बिहार में बीजेपी की सरकार बनाना हमारा लक्ष्य है. लोकसभा चुनाव में बिहार में बीजेपी नीतीश कुमार के भरोसे चुनाव जीत सकी है. इस बात को पीएम नरेंद्र मोदी भी स्वीकार कर चुके हैं।
जाहिर है जब पार्टी कमजोर होती है तो असंतुष्टों को बोलने को मौका मिल जाता है. उन्हें पता होता है कि ऐसी स्थिति में उन पर कोई आंच नहीं आने वाली है. पार्टी की घटती लोकप्रियता से क्षत्रप भी मजबूत होते हैं. बिहार में भी उसी का डर है.अश्विनी चौबे लोकसभा चुनाव में टिकट काटे जाने से नाराज हैं और इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पार्टी में रहते हुए गठबंधन की डोर कमजोर करने के लिए जानबूझकर इस तरह के बयान दे रहे हों।