चुनावों की शुरुआत से पहले ही इंडी एलायंस चारों खाने चित हो गया है। वह चार राज्यों में भाजपा से सीधा मुकाबला करने के मंसूबे बना रहा था। कहा यह जा रहा था कि चारों राज्यों में भाजपा के सामने विपक्ष का एक ही उम्मीदवार खड़ा होगा तो उसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा।
सबसे ज्यादा सीटों वाले दो हिन्दी भाषी और दो गैर हिन्दी भाषी इन चारों राज्यों में 210 लोकसभा सीटें हैं। जिनमें से भाजपा खुद पिछली बार 121 सीटें जीती थी, और उसके सहयोगी दल 52 सीटें जीते थे। कुल मिला कर 210 में से 173 सीटें एनडीए जीती थी, जबकि विपक्षी दल सिर्फ 36 सीटें जीते थे। ये राज्य हैं, बंगाल, महाराष्ट्र, बिहार और उत्तर प्रदेश।
एनडीए को पूरे देश में मिली 353 सीटों में से करीब करीब आधी सीटें इन चार राज्यों से मिली थीं। इन चार राज्यों में कांग्रेस पिछली बार पांच सीटें जीती थी, बंगाल में दो, बाकी तीनों राज्यों में एक एक सीट। इंडी गठबंधन के बाकी दल इन चारों राज्यों में 31 सीटें जीते थे। जिनमें से सबसे ज्यादा तृणमूल कांग्रेस बंगाल में 22 सीटें जीती थी, एनसीपी महाराष्ट्र में चार और समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में पांच, हालांकि दो सीटें वह बाद में उपचुनाव में भाजपा से हार गई थी।
इन चारों राज्यों में केवल पांच सीटें जीतने वाली कांग्रेस गठबंधन के सहयोगियों से 68 सीटें मांग रही थी। महाराष्ट्र में एनसीपी और उद्धव शिव सेना से 48 में से 26, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से 80 में से 22 , बिहार में राजद से 40 में से 15 और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से 42 में से 5 सीटें।
ये चारों राज्य भाजपा के लिए अहम हैं, क्योंकि एनडीए की मौजूदा 353 में से आधी इन चार राज्यों से जीती थी। बंगाल को छोड़कर बाकी तीनों राज्यों में भाजपा की जीत में उसके सहयोगी दलों की भी अहम भूमिका थी, लेकिन बिहार और महाराष्ट्र में राजग के पुराने साथी जेडीयू और शिवसेना उसका साथ छोड़ चुके थे। अगर एनडीए फिर से मजबूत न होता, इंडी एलायंस से सीधे मुकाबले की स्थिति बनती, तो भाजपा को निश्चित ही मुश्किल होती।
छह महीनों के भीतर हालात बदल गए हैं। इन छह महीनों में उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में एनडीए पहले से ज्यादा मजबूत हुआ है, जबकि इंडी गठबंधन इन चारों ही राज्यों में कमजोर हो चुका है। चुनाव शुरू होने से पहले ही चारों राज्यों में भाजपा ने इंडी एलायंस को बहुत पीछे छोड़ दिया है।
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी दलों का ममता बनर्जी के साथ सीट शेयरिंग नहीं हुआ। संदेशखाली की घटना के बाद तृणमूल कांग्रेस बचाव की मुद्रा में है। भाजपा ने जिस तरह संदेशखाली में तृणमूल कांग्रेस के नेता के शोषण की शिकार हुई रेखा पात्रा को उम्मीदवार बनाया, उसने पूरे राज्य में चुनाव को दिलचस्प बना दिया है।
बंगाल की क़ानून व्यवस्था की बुरी हालत और नागरिकता संशोधन क़ानून की नियमावली लागू होने के बाद उन इलाकों में खासकर भाजपा की स्थिति मजबूत हो गई है, जहां बांग्लादेश से आए हिन्दू शरणार्थी बिना नागरिकता के रह रहे थे। तृणमूल कांग्रेस के इन वोटरों के 80 से 90 प्रतिशत तक भाजपा की तरफ लौटने की संभावना बनी है। अब यह तय है कि भाजपा पिछली बार जीती अपनी 18 सीटें तो बचाएगी ही, कुछ और सीटें भी तृणमूल कांग्रेस से छीनेगी। कांग्रेस जो अपना फायदा देख रही थी, उसके लिए पिछली बार जीती दो सीटें बचाना भी मुश्किल होगा।
इन पिछले छह महीनों में नीतीश कुमार ने भी इंडी एलायंस का साथ छोड़कर दुबारा एनडीए का दामन थाम लिया। लालू यादव कांग्रेस को दस सीटें देने को भी तैयार नहीं। अलबत्ता कांग्रेस जिन ग्यारह सीटों पर दावा ठोक रही थी, उनमें एक सीट सीपीआई एमएल को थमा दी, और तीन सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। पहले दौर का नामांकन हो जाने के बाद भी सीट शेयरिंग नहीं हो सकी।
आरजेडी और कांग्रेस में एक एक सीट को लेकर खींचतान चल रही है। जबकि भाजपा ने जेडीयू को 16 सीटें देकर अपने तीन अन्य सहयोगियों से भी सफलतापूर्वक सीट शेयरिंग कर के एनडीए को पहले से भी ज्यादा मजबूत बना लिया है।
जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है, तो वहां रामजन्मभूमि मन्दिर निर्माण से भाजपा के पक्ष में हवा बह रही है। जहां तक राजनीतिक गठबंधन का सवाल है, तो पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल मिल कर लड़े थे।
इस मजबूत गठबंधन को सिर्फ 15 सीटें मिलीं थी, जिनमें से दस बसपा को और पांच सपा को मिलीं थीं। अब दस सीटें जीतने वाली बसपा इंडी एलायंस में नहीं है, रालोद भी एलायंस से बाहर हो चुका है। विधानसभा चुनावों में सपा के सहयोगी रहे ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा और पल्लवी पटेल का अपना दल कमेरावादी समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ चुके है। सपा के साथ इस बार सिर्फ कांग्रेस का गठबंधन है, जो 2019 के गठबंधन से भी कमजोर है।
महाराष्ट्र में आने वाली चुनौती को भाजपा ने बहुत पहले भांप लिया था, इसलिए एनडीए छोड़ कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने वाले उद्धव ठाकरे की पार्टी को सवा साल पहले ही तोड़ कर एनडीए सरकार बना ली थी। इंडी एलायंस बनने के बाद भाजपा ने शरद पवार की एनसीपी को भी तोड़ने में सफलता हासिल कर ली। शरद पवार के भतीजे अजीत पवार की रहनुमाई में एनसीपी के दो तिहाई विधायक एनडीए में आ मिले हैं।
शरद पवार और उद्धव ठाकरे के साथ कांग्रेस का गठजोड़ मोदी के लिए बड़ी चुनौती बन गया था। महाराष्ट्र में भाजपा पिछली बार 25 सीटें लड़कर 23 जीती थी, उसकी सहयोगी शिवसेना 23 सीटें लड़कर 18 जीती थी। इनमें से 17 सांसद बाद में उद्धव ठाकरे का साथ छोड़कर एकनाथ शिंदे के साथ आ गए थे।
इन सभी 17 सांसदों को सीट शेयरिंग में एडजेस्ट करना आसान नहीं था, ऊपर से शरद पवार की एनसीपी भी टूट कर एनडीए में आ गई थी, अजीत पवार भी 9-10 सीटों पर दावा ठोक रहे थे। इसलिए लगता था कि अजीत पवार को साथ लेकर भाजपा बुरी तरफ फंस गई है, लेकिन भाजपा इस संकट से आसानी से निकल आई। उसने शिवसेना और एनसीपी को भी टिकटें बाँट दी और खुद भी 25 के बजाए 27 सीटों पर लड़ेगी।
भाजपा ने एकनाथ शिंदे की शिवसेना को 14 और अजीत पवार की एनसीपी को 5 सीटें दे दी हैं। उधर इंडी एलायंस में जमकर जूतम पैजार हो रहा है। प्रकाश आंबेडकर नाराज होकर इंडी एलायंस से बाहर हो गए। उन्होंने 30 सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने का एलान कर दिया है, आठ सीटों पर तो उम्मीदवारों का नाम भी घोषित कर दिया। उद्धव ठाकरे ने एकतरफा 17 उम्मीदवारों का तो एलान ही कर दिया है। जिनमें मुम्बई की सात में से छह सीटें भी हैं। पहले मिलिंद देवड़ा सीट के चक्कर में कांग्रेस छोड़कर एकनाथ शिंदे की शिवसेना में चले गए थे। अब संजय निरुपम ने भी कांग्रेस छोड़ने का मन बना लिया है।