सलूंबर – प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज की अक्षुण्ण मूल बाल ब्रह्मचारी पट्ट परंपरा के पंचम पट्टाधीश आचार्य श्री वर्धमान सागर जी विगत दिनों से सलूंबर जैन बोर्डिंग में संघ सहित विराजित है ।22 दिसंबर को संघस्थ शिष्या 65 वर्षीय आर्यिका श्री योगी मति जी ने समस्त संघ से क्षमा याचना कर निर्यापकाचार्य आचार्य श्री वर्धमान सागर जी से नियम संलेखना धारण कर संस्तरारोहण किया। संस्तर से आशय जिस पर क्षपक साधु बैठते है, लेटते है,उसका आरोहण करना। संस्तरारोहण कहलाता है ।श्री योगीमति ने 20 अक्टूबर को उदयपुर में आचार्य श्री वर्धमान सागर जी से आर्यिका दीक्षा ली जैन बोर्डिंग में विराजित आचार्यश्री वर्धमान सागरजी महाराज ने प्रात:कालीन धर्मसभा में णमोकार महामंत्र की व्याख्या करते हुए कहा कि णमोसिद्धाणम कोई साधरण पद नहीं है। इसका फल प्राप्त करने के लिए पुरूषार्थ करना पड़ता है। बिना मेहनत और पुरूषार्थ से कभी कोई फल की प्राप्ति नहीं होती है। कोई भी कार्य आप प्रारम्भ करते हैं उसका फल प्राप्त करने के लिए परीक्षा देनी पड़ती है। उसी तरह से जो हमारे मंत्र शास्त्र हैंै उन पर अगर श्रद्धा और विश्वास नहीं बनेगा तब तक उनका हमे यथोचित फल प्राप्त नहीं हो पाएगा। आप कई बार अन्य मंत्रों की कल्पना करते हैं, उन्हें साधने का प्रयत्न करते हैं लेकिन यह भी जान लेना जरूरी है कि अन्य मंत्रों की रचना भी णमोकार महामंत्र से ही ही हुई है।
राजेश पंचोलिया अनुसार आचार्यश्री ने कहा कि जो अनादिकाल से हमने कर्म कर रखे हैं वह कर्म कैसे नष्ट होते हैं। कर्म तो चलते ही रहते हैं। हमारे जन्म और मरण की भी ऐसी ही परम्परा चल रही है। जन्म और मरण दोनों का जो बीज है, उसे नष्ट नहीं करेंगे तो यह जन्म ओर मरण की परमपरा कभी खत्म नहीं हो सकती है। सिद्धों ने भी वही किया है। उन्होंने जन्म- मृत्यु जैसे बीज और कर्मबन्धों को अपने ध्यान रूपी अग्नि के माध्यम से जला दिया। तब जाकर के उन्होंने सिद्ध पद को प्राप्त किया। किसान भी सारे बीज अलग- अलग जगह रखता है। उन्हें समय के अनुसार बोता है। कड़ी मेहनत और पुरूषार्थ करके उनसे फल प्राप्त करता है। वैसे ही सिद्ध पद भी ऐसे ही प्राप्त नहीं होते हैं। संसार में हर सफलता को पाने के लिए कड़ी मेहनत ओर पुरूषार्थ जरूरी है। इसके बिना न सफलता नहीं मिलती है और ना ही कोई सिद्धि ही प्राप्त की जा सकती है। ब्रह्मचारी गजू भैय्या, प्रभुलाल,पंडित कमलेश, मणि लाल मालवी अनुसार आचार्य श्री के प्रवचन के पूर्व संघस्थ शिष्या आर्यिका श्री देशना मति माताजी ने उपदेश में बताया कि साधु की संगति ,संत समागम से करोड़ों जन्म के अपराध पाप,नष्ट हो जाते हैं ।जीवन में सुख और दुख आते हैं उसके लिए इसी को दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि सुख और दुख हमारे कर्मों का फल है इसे एक कथा के माध्यम से स्पष्ट किया । निमित्त कोई और बन जाता है स्वयं के कर्म हमे सुख और दुख देते हैं असाता कर्म के उदय से हमें दुख मिलते हैं आचार्य संघ के आगमन से काफी धर्म प्रभावना हो रही हैं शाम को श्री जी की आरती के बाद आचार्य श्री की आरती होती हैं ।