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आचार्य श्रेष्ठ 108 विद्यासागर जी महाराज के जन्म दिवस पर विशेष – शरद पूर्णिमा(28 अक्टूबर विशेष)

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  • शरद पूर्णिमा के चंदा आचार्य श्रेष्ठ विद्यासागर महाराज
  • आचार्य श्रेष्ठ का संदेश इंडिया नहीं भारत बोलों-

“आचार्य श्री की महिमा का गुणगान करूं मैं कैसे ।

ये तो लगते हैं महावीर के लघुनंदन जैसे ।।

जिनकी वाणी सुनकर मन होता है पावन ।

ऐसे गुरूवर विद्या सिंधु को शत् शत् बार नमन ।।”

ललितपुर – आचार्य श्रेष्ठ 108 विद्यासागर महाराज आज सम्पूर्ण जैन समाज के ही नहीं अपितु जनजन के संत बन चुके हैं।उनकी महिमा का वर्णन करने के लिए बैठूं तो न जाने कितने दिन व रात निकल जायेंगे।उनके जन्म दिवस की 77 वीं वर्षगांठ पर भावांजलि व्यक्त करता हूं।भारत बसुधा पर सुधारस की वर्षा करने वाले अनेक महापुरुष और संतों ने जन्म लिया है। उनकी साधना और कथनी-करनी की एकता ने सारे विश्व को ज्ञान रूपी आलोक से आलोकित किया है। इन स्थितप्रज्ञ पुरुषों ने अपनी जीवनानुभव की वाणी से त्रस्त और विघटित समाज को एक नवीन संबल प्रदान किया है।जिसने राजनैतिक,सामाजिक,धार्मिक,शैक्षणिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में क्रांतिक परिवर्तन किये हैं।भगवान राम,कृष्ण,महावीर,महात्मां बुद्ध,आध्यत्मिक साधना के शिखर पुरुष आचार्य कुन्दकुन्द,पूज्यपाद्, संत कबीर,गुरूनानक, बनारसीदास, द्यानतराय तथा महात्मा गाँधी जैसे महामना साधकों की अपनी आत्म-साधना के बल पर स्वतंत्रता और समता के जीवन-मूल्य प्रस्तुत करके सम्पूर्ण मानवता को एक सूत्र में बाँधा है।उनके त्याग और संयम,सिद्धांतों और वचनों से आज भी सुख व शांति की सुगन्ध सुवासित हो रही है। जीवन में आस्था और विश्वास, चरित्र और निर्मल ज्ञान तथा अहिंसा एवं निर्वर की भावना को बल देने वाले इन महापुरुषों,साधकों,संत,कवियों के क्रम में दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर  महाराज वर्तमान में शिखर पुरुष हैं, जिनकी ओज और माधुर्यपूर्ण वाणी में ऋजुता, व्यक्तित्व में समता,जीने में संयम की त्रिवेणी है। जीवन-मूल्यों को प्रतिष्ठित करने वाले बाल ब्रह्मचारी आचार्य विद्यासागर महाराज स्वभाव से सरल और सब जीवों के प्रति मित्रवत व्यवहार के संपोषक हैं।इसी के कारण उनके व्यक्तित्व में विश्व-बन्धुत्व की,मानवता की सौंधी-सुगन्ध विद्यमान है। आश्विन शरदपूर्णिमा संवत 2003 तदनुसार 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक प्रांत के बेलगांव जिले के सुप्रसिद्ध सदलगा ग्राम में श्रेष्ठी श्री मलप्पा अष्टगे एवं माता श्रीमती के घर जन्में इस बालक का नाम विद्याधर रखा गया। धार्मिक विचारों से ओतप्रोत,संवेदनशील सद्गृहस्थ मल्लपा नित्य जिनेन्द्र दर्शन एवं पूजन के पश्चात ही भोजनादि आवश्यक करते थे। साधु-सत्संगति करने से परिवार में संयम, अनुशासन,रीति-नीति की चर्या का ही परिपालन होता था।आचार्य श्रेष्ठ माता-पिता की द्वितीय संतान होकर भी अद्वितीय संतान हैं।  माता-पिता,दो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहिनें शांता व सुवर्णा भी आपसे प्रेरणा पाकर घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर जीवन-कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले कर आत्म-साधनारत हैं। धन्य है वह परिवार जिसमें सम्पूर्ण परिवार सांसारिक प्रपंचों को छोड कर मुक्ति-मार्ग पर चल रहे हैं। इतिहास में ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है। विद्याधर का बाल्यकाल घर तथा गाँव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से युक्त रहा है। खेलकूद के स्थान पर स्वयं या माता-पिता के साथ मन्दिर जाना, धर्म-प्रवचन सुनना,शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना आदि अनेक घटनाऐं मानो भविष्य में आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थी। आप पढाई हो या गृहकार्य, सभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूर्ण करते। बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साथ पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान लगाना,मन्दिर में विराजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमे छिपी विराटता को जानने का प्रयास करना, बिच्छू के काटने पर भी असीम दर्द को हँसते हुए पी जाना,परंतु धार्मिक-चर्या में अंतर ना आने देना, उनके संकल्पवान पथ पर आगे बढने के संकेत थे।गाँव की पाठशाला में मातृभाषा कन्नड में अध्ययन प्रारम्भ कर समीपस्थ ग्राम बेडकीहाल में हाई स्कूल की नवमीं कक्षा तक अध्ययन पूर्ण किया। चाहे गणित के सूत्र हों या भूगोल के नक्शे, पल भर में कडी मेहनत और लगन से उसे पूर्ण करते थे। उन्होनें शिक्षा को संस्कार और चरित्र की आधारशिला माना और गुरुकुल व्यवस्थानुसार शिक्षा को ग्रहण किया, तभी तो आज तक गुरु- शिष्य परम्परा के विकास में वे सतत शिक्षा दे रहे हैं।वास्तविक शिक्षा तो ब्रह्मचारी अवस्था में तथा पुनः मुनि विद्यासागर के रूप में गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के सान्निध्य में पूरी हुई। तभी वे प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, कन्नड, मराठी, अंग्रेजी, हिन्दी तथा बंग्ला जैसी अनेक भाषाओं के ज्ञाता और व्याकरण, छन्दशास्त्र, न्याय, दर्शन, साहित्य और अध्यात्म के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य बने। आचार्य विद्यासागर मात्र दिवस काल में ही चलने वाले नग्नपाद पदयात्री हैं। राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजित, नदी की तरह प्रवाहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द,निर्मल,स्वाधीन,चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उत्प्रेरक, उदात्त, ज्ञेय और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी आचार्य विद्यासागर भौतिक कोलाहलों से दूर,महान तपस्वी हैं।बाल्यकाल में खेलकूद में शतरंज खेलना,शिक्षाप्रद फिल्में देखना, मन्दिर के प्रति आस्था रखना, तकली कातना, गिल्ली-डंडा खेलना, महापुरुषों और शहीद पुरुषों के तैलचित्र बनाना आदि रुचियाँ आपमें विद्यमान थी। नौ वर्ष की उम्र में ही चारित्र चक्रवर्ती आचार्य प्रवर श्री शांतिसागर जी महाराज के शेडवाल ग्राम में दर्शन कर वैराग्य-भावना का उदय आपके हृदय में हो गया था। जो आगे चल कर ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर प्रस्फुटित हुआ। 20 वर्ष की उम्र जो की खाने-पीने, भोगोपभोग या संसारिक आनन्द प्राप्त करने की होती है, तब वह  साधु-सत्संगति की भावना को हृदय में धारण कर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास जयपुर(राज.) पहुँचे। वहाँ ब्रह्मचारी विद्याधर उपसर्ग और परीषहों को जीतकर ज्ञान,तपस्या और सेवा का पिण्ड प्रतीक बन कर जन-जन के मन का प्रेरणा स्त्रोत बन गया था।उन्होंने संसार की असारता, जीवन के रहस्य और साधना के महत्व को पहचान गये थे। तभी तो हृष्ट-पुष्ट, गोरे चिट्टे, लचीले, युवा विद्याधर की निष्ठा, दृढता और अडिगता के सामने मोह, माया, श्रृंगार आदि घुटने टेक चुके थे। वैराग्य भावना दृढवती हो चली। अब पदयात्री और करपात्री बनने की भावना से उन्होंने गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास मदनगंज किशनगढ़ (अजमेर) राजस्थान पहुँचे। गुरुवर के निकट सम्पर्क में रहकर लगभग एक वर्ष तक कठोर साधना से परिपक्व होकर मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा राजस्थान की ऐतिहासिक नगरी अजमेर में आषाढ शुक्ल पंचमी, वि.सं. 2025, रविवार, 30 जून 1968 ईस्वी को लगभग 22 वर्ष की उम्र में संयम का परिपालन हेतु आपने  पिच्छि-कमंडल धारण कर संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। परिग्रह से अपरिग्रह, असार से सार की ओर बढने वाली यह यात्रा मानो उन्होंने अंगारों पर चलकर पूर्ण की। ब्रह्मचारी विद्याधर से मुनि  विद्यासागर महाराज बन गये।

अब धरती ही बिछौना,आकाश ही उडौना और दिशाएँ ही वस्त्र बन गये थे। दीक्षा के उपरांत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा – सुश्रुषा करते हुए आपकी साधना उत्तरोत्त्र विकसित होती गयी। तब से आज तक अपने प्रति वज्र से कठोर, परंतु दूसरों के प्रति नवनीत से भी मृदु बनकर शीत-ताप एवं वर्षा के गहन झंझावातों में भी वह साधना हेतु अरुक-अथक रूप में प्रवर्तमान हैं। श्रम और अनुशासन, विनय और संयम, तप और त्याग की अग्नि में तपी उनकी साधना गुरु-आज्ञा पालन, सबके प्रति समता की दृष्टि एवं समस्त जीव कल्याण की भावना सतत प्रवाहित होती रहती है।सल्लेखना के पूर्व आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य-पद का त्याग आवश्यक जान कर उन्होंने आचार्य पद मुनि विद्यासागर को देने की इच्छा जाहिर की, परंतु आप इस गुरुतर भार को धारण करने किसी भी हालत में तैयार नहीं हुए, तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने सम्बोधित कर कहा के साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्लेखना धारण कर सकूँ। तुम्हें आज गुरु दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद ग्रहण करना होगा। गुरु-दक्षिणा की बात सुन कर मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये। तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घडी जब मगसिर कृष्ण द्वितीया, संवत 2029, बुधवार, 22 नवम्बर,1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने कर कमलों आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धारा बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले – “ हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही हैं।अतःआपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधि मरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहित करें।“ आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि०सं० 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच 4 दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित रचना -संसार में सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में“मूक माटी” महाकाव्य ने हिन्दी-साहित्य और हिन्दी सत-साहित्य जगत में आचार्य श्री को काव्य की आत्मा तक पहुँचाया है।आचार्य श्रेष्ठ के श्री चरणों में बारम्बार शीश झुकाकर बस यही आकांक्षा रखता हूँ कि हमारा सौभाग्य है कि हमने गुरूवर के युग जन्म लिया।आचार्य श्री के जन्म दिवस के अवसर पर मैं आचार्य श्रेष्ठ भगवन विद्यासागर जी महाराज को बारंबार नमोस्तु! नमोस्तु!नमोस्तु! करता हूं।

● आचार्य श्रेष्ठ का संदेश इंडिया नहीं भारत बोलों-

आचार्य श्रेष्ठ 108 विद्यासागर जी महाराज का देशवासियों को संदेश है कि वह अपनी मातृभाषा हिंदी का सम्मान करें।अंग्रेजी भाषा का कोई औचित्य नहीं है।भारत को भारत ही बोलें क्योंकि अंग्रेजी भाषा का “इंडिया” शब्द अर्थ विहीन है।शिक्षक अपनी लेखनी व शिक्षण कार्य के द्वारा हर कठिन से कठिन कार्य को सरल बना सकते हैं।शिक्षक ही इस कार्य के लिए वीणा उठाकर “हिंदी भाषा” अभियान को सफल बना सकते हैं।