बड़ौत – दिगम्बर जैनाचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज ने ऋषभ सभागार मे धर्मसभा में सम्बोधन करते हुए कहा कि संसार में भ्रमण करना, सरल है, परन्तु सब कुछ वैराग्य पूर्वक छोड़कर हाथ-पर-हाथ रखकर ध्यान में लीन रहना अत्यंत कठिन है। आत्मशांति चाहिए, सुख एवं आनन्द चाहिए तो दूसरों को बदलने का प्रयास मत करो, स्वयं को बदलो। जो स्वयं को बदलना जानता है, वह संसार सागर को पार कर लेता है। बदलने में कर्तापन है। चाह-आकांक्षा है। जहाँ आकांक्षा होगी, वहाँ आस्था भंग हो जाती है। आस्था मे आनन्द है, आस्था में सुख है। आस्था भंग होते ही, अनन्द भंग हो जाता है। विश्वास, परस्पर-समर्पण, सहयोग की भावना में विशुद्धि होती है। विशुद्धि दुर्लभ है। जगत् के पदार्थ प्राप्त करना बड़ी बात नहीं, परन्तु संयम, तप, व् त्याग से जो परिणामों की विशुद्धि प्राप्त हुई है, वह कठिन है।
सुर दुर्लभ है, नर तन पाना। मनुष्य-भव प्राप्त करके अगले-भव की तैयारी नहीं की, तो यह भव समझो व्यर्थ खो दिया। जीवन क्षण-भंगुर है। ओस बिन्दु के समान क्षणिक है, सुन्दरता। समय व्यतीत हो रहा है, क्षण-क्षण निकलता जा रहा है, जीवन के मूल्य को समझो। अनमोल क्षणों को अर्थ में समय व्यतीत मत करो । अपने भावों को अशुद्ध करने वाला, चिंता में समय नष्ट करने वाला, ईर्ष्या में झुलसने वाला भी करना कषायी होता है। जीवों का वध करना भी पाप है और किसी को बदनाम करना महा-पाप है। एक-एक पल महत्त्वपूर्ण है जो समय को समय पर समझ लेता है, वही श्रेष्ठता को प्राप्त करता है।