संघस्थ- परम पूज्या गणिनी आर्यिका 105 विशुद्ध मति माताजी
मध्यलोक शिखर – सम्मेद शिखर जी में चातुर्मास रत, परम् पूज्या पट्ट गणिनी आर्यिका 105 विज्ञमति माताजी ने जन सामान्य को उद्बोधित करते हुए कहा कि ये हमारा असीम पुण्योदय हैं कि तीर्थंकर महावीर के शासनकाल में आज हम सभी, अति दुर्लभ जिनेंद्र भगवान की वाणी का श्रवण कर्णनाँजुली के माध्यम से कर रहे हैं। हमारा ध्येय यही होना चाहिए कि आत्म भवन के प्रत्येक प्रदेश से एक ही भाव प्रस्फुटित हो की पृथ्वी मंडल पर जिनेंद्र वाणी और गुरु पादमूल चिर जयवंत रहे। जिन चरणों के आलम्बन से हम भी मृत्यु महोत्सव की कला को प्राप्त कर सकें। पूज्य माताजी ने संसार की दशा को बताते हुए कहा कि संसार के इस अनादि संसरण में निश्चित रूप से यह मन आकुलित होता है। जिस प्रकार से नेत्र दृष्टि तो है लेकिन उस दृष्टि के होते हुए भी यदि यह संसारी आत्मा गड्ढे में गिरता है तो उसकी नेत्र दृष्टि का होना व्यर्थ है। ठीक उसी प्रकार, ज्ञान ही प्रकाश है, फिर भी चित्त की सुस्थिरता नही है। तो अंतिम नियति सुलभ नहीं है। मात्र दर्शन और ज्ञान मोक्ष का पाथेय नही हैं। माताजी ने शिकंजी का उदाहरण देकर कहा कि तीन मिले- जल मिला, नींबू मिला, शक्कर मिली तब जाकर नींबू पानी बना। ठीक उसी प्रकार जब रत्नत्रय की अभिव्यक्ति एकरूपता में परिणत हो जाती है, तब ही अंतिम समाधिमरण के फल स्वरुप मोक्ष की सिद्धि प्राप्त हो पाती है । मधुर वाणी से कृतार्थ करते हुए पूज्य माताजी ने कामना की कि आपके चलते हुए चरण यदि विस्मरण की ओर ले जाए, अपने लक्ष्य से च्युत कर दे तो कैसा चरण? कैसा आचरण? ज्ञान असमान है, श्रद्धा प्रमाण है। लेकिन चारित्र के लिए मन नहीं बन रहा है। मैं ज्ञान बढ़ा रहा हूं, किसके लिए प्रसिद्धि के लिए। श्रद्धान बढ़ा रहा हूँ, किसके लिए- प्रसिद्धि के लिए। आचार्य भगवन कहते हैं, रे मूढ़ भ्रमणशील आत्मन! आचरण को पवित्र कर ले तेरी सिद्धि और प्रसिद्धि तो स्वयमेव हो जाएगी। राह पर कदम बढ़ा तो राह एक दिन आठों कर्मों को हरा, तुम्हें तुम्हारी मंजिल से अवश्य मिला देगी।