बड़ौत – आचार्य श्री विशुद्धसागर जी महराज ने ऋषभ सभागार मे मंगल प्रवचन देते हुए कहा कि,अमृत- अमृत है, गुड़ गुड़ है, मिश्री मिश्री है, मिट्टी मिट्टी है, विष विष है ,मल-मल है। सभी द्रव्य स्व स्वरूप में विद्यमान हैं।हमारे सोचने से द्रव्य में कोई परिवर्तन नहीं होता, न होगा । फिर भी हम व्यर्थ- विचार कर, आकुल व्याकुल होते रहते हैं । किसी के सोचने से, अन्य किसी का भला-बुरा नहीं होता है। हम स्वयं ही राग-द्वेष- मोह परिणाम कर व्यथित होते रहते हैं। तीव्र- मंद परिणामों के अनुसार व्यक्ति कर्म बंध को प्राप्त होता है। अच्छे भाव शुभ रूप फल देते हैं, अशुभ परिणाम कंडु फल देता है। भावों से बंध, भावों से निर्बंध । भद्रपरिणाम शुभ का प्रतीक होते हैं। घर की देहरी सुन्दरता देखकर, घर में निवासरत व्यक्तियों का ज्ञान हो जाता है। भेष, भाषा, भोजन से व्यक्ति की पहचान होती है। तन का गोरापन श्रेष्ठ नहीं है। यदि मन मलिन है तो सुमन की सुगंध तभी श्रेष्ठ मानना, जब तुम्हारा मन सु-मन हो। तन के साथ मन को भी सजाओ। तन का श्रृंगार मत करो, भावों को संभालो ।
स्व. भावों को जिसने सँभाल लिया, विकारों में सँभल गए। मन को रोक लिया, पापों में पतित नहीं हुए ,भाषा में कुटिलता नहीं की, कषायों में विषाक्त नहीं हुए तो निश्चित ही आपके भाव निर्मल और पवित्र होंगे। भावों की पवित्रता मानव को परमात्मा बना देती है। भावों की कुटिलता, विचारों की हीनता, काषायिक परिणाम, निम्न सोच अधोगति का कारण है। साधुओं की वाणी सुनो, सँभलो और चित्त को सँभालो। स्व-भाव ही महात्मा और परमात्मा बनायेंगे । सज्जन हो या दुर्जन, दोनों ही जीवन जीते हैं, परन्तु सज्जन प्रशंसा-सत्कार को प्राप्त होता है वही, दुर्जन सर्वत्र तिरस्कार अविनय को प्राप्त होता है। जियो और जीने दो, यही मानवता का चिह्न है। सज्जन की सज्जनता सर्वत्र आदरनीय होती है । सभा का संचालन पंडित श्रेयांस जैन ने किया। सभा मे प्रवीण जैन, सुनील जैन, अतुल जैन, संदीप जैन, राजेश भारती, नरेंद्र जैन, वकील चंद जैन, अशोक जैन,वरदान जैन आदि थे ।