बड़ौत (उ.प्र.) – दिगम्बराचार्य श्री गुरु विशुद्धसागर जी ने धर्म सभा में सम्बोधन करते हुए कहा कि – ऊपरी मंजिल पर पहुँचना है तो पहली मंजिल छोड़ना पड़ेगा, ऐसे ही अशुद्ध को छोड़ो । शुभ में लगो, शुद्ध का पुरुषार्थ करो। शुद्ध में प्रवेश करना है, तो शुभ का आश्रय लो, तो अशुभ से बच जाओगे। प्रारम्भिक काल में आश्रय लेना पड़ेगा, फिर अभ्यस्थ होने पर आश्रय को भी छोड़ना पड़ता है। आत्म लीनता प्राप्त करना है, तो प्रारम्भ में भूमिकानुसार पंचपरमेष्ठी का आश्रय लेना पड़ेगा । जितना साधक सम्पर्क रखेगा, उतना ही अशांत रहेगा। जितना पर-से परिचय बढ़ेगा, उतना-उतना आप निज से दूर होते जायेंगे। अपनी शक्ति बचाना है, अपने परिणामों की विशुद्धि की रक्षा करना है, अपने संयम को सुरक्षित रखना है, अपनी यश-कीर्ति को धूमिल नहीं करना है, परम- शांति का बेदन करना है, तो पर- से दूर रहो, मौन पूर्वक साधना करो । सम्पर्क सुख क्षीण लेता है । जहाँ गुरुओं के, तपस्वियों के, साधुओं के चरण पड़ते हैं, वहाँ स्वयं ही तीर्थ बन जाते हैं। निर्ग्रन्थ वीतरागी मुनि ही तीर्थ हैं, निर्ग्रन्थधर्म ही तीर्थभूत है। तीर्थ बनना है, तो तीर्थंकरों के पवित्र पथ पर चलो। तीर्थ वंदना के साथ, परिणाम भी पवित्र करो। भावों की पवित्रता के बिना, तीर्थ वंदना भी व्यर्थ है । फूटे वर्तन में सामग्री नहीं ठहरती, ऐसे ही अशुद्ध-भावों में भगवान नहीं ठहरते हैं । पूजा करने से अच्छा पूज्य बनना है, परन्तु तब-तक पूज्य न बनो तब तक पूजा करते रहना। निजात्मा ही भगवान बनेगी, इसलिए शुद्धात्माही तीर्थ है। जैसे भगवान के कारण मंदिर की देहरी भी राज्य हो जाती है, ऐसे ही संयम धारण करने से देह भी पूज्य हो जाती है। तीर्थ तीर्थ बनने के लिए हैं, सच्चे तीर्थ नहीं हैं जहाँ सत्य-अहिंसा का जयनाद होता हो ।