रायपुर – जैन धर्म में योग की सनातन परंपरा रही है। प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव योगशास्त्र के एक पारदर्शी सतपुरुष थे। ‘श्रीमद् भागवत’ एवं जैन स्तोत्र ‘भक्तामर’ में उन्हें ‘योगेश्वर’ कहकर संबोधित किया गया है । जब कल्पवृक्ष समाप्त हो रहे थे और कर्म युग का प्रारंभ हो रहा था तब तीर्थंकर ऋषभदेव ने ही मानव मनीषा को असि, मसि, कृषि, विद्या वाणिज्य एवं शिल्प की शिक्षा दे कर उसे आजीविका के योग्य बनाया था। अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि एवं सुंदरी को अंको का ज्ञान करा कर जगत में साहित्य का संचार किया।
विश्व में जहां कहीं भी खुदाई में जैन प्रतिमाएं प्राप्त होती है वे सब या तो खड़गासन अथवा पद्मासन मुद्रा में प्राप्त होती है। पांच हजार वर्ष प्राचीन सिंधु घाटी में उत्खनन से प्राप्त अर्ध उन्मिलित नेत्र ध्यान मुद्रा को पुरातत्वविद रामप्रसाद चंदा ने ऋषभदेव के पिता महाराज नाभिराय की प्रतिमा बतलाया है। यह अर्ध उन्मिलित नेत्र ध्यान मुद्रा जैनो की एक विशिष्ट ध्यान शैली है जिसका जैन ग्रंथ आदि पुराण में उल्लेख आता है । इसके अतिरिक्त जैन आचार्य योगिन्दु देव के जोगसारु , शुभचंद्र आचार्य के ज्ञानार्णव एवं हेमचन्द्राचार्य का योगदर्शन आदि अनेक जैन ग्रंथों में योग विषय का विशद विवेचन है । उल्लेखनीय है कि ऋषभ पुत्र चक्रवर्ती ‘भरत’ के नाम से ही हमारे देश का नाम ‘भारतवर्ष’ विख्यात है।