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भारत ने यूएन में अमेरिकी प्रस्ताव पर ईरान के ख़िलाफ़ वोट क्यों नहीं दिया?

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भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारत और ईरान के रिश्तों पर एक बार कहा था, “इतिहास में और उत्पत्ति में भारत और ईरान की तरह कुछ ही ऐसे देश होंगे जिनके बीच संबंध इतने घनिष्ठ रहे हों.”आज भी भारत और ईरान के द्विपक्षीय संबंध मज़बूत हैं. इन दोनों प्राचीन सभ्यताओं के बीच सांस्कृतिक संबंध भी घनिष्ठ रहे हैं.लेकिन हाल के सालों में इस रिश्ते में उतार-चढ़ाव देखने को मिला, साथ ही दोनों को कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा. ख़ास कर 2018 के बाद से, जब परमाणु समझौते यानी ज्वाइंट कंप्रिहेंसिव प्लान ऑफ़ एक्शन या जेसीपीओए से बाहर निकलने के बाद ईरान पर अमेरिका ने कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए.ग़ौरतलब है कि जेसीपीओए को आमतौर पर 2015 में हुए ईरान परमाणु समझौते के रूप में जाना जाता है. यह समझौता 14 जुलाई 2015 को वियना में ईरान, अमेरिका और यूरोपीय संघ के बीच ईरानी परमाणु कार्यक्रम पर किया गया था.इस समझौते के तहत ईरान के परमाणु संवर्द्धन कार्यक्रम को सीमित करने के बदले उस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों में उसे कुछ छूट दी जानी थी.

भारत-ईरान रिश्तों में उतार-चढ़ाव

आफ़ताब कमाल पाशा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फ़ॉर वेस्ट एशियन स्टडीज़ में पढ़ाते हैं.

बीबीसी हिंदी से बातचीत में वे कहते हैं, “हाल के वर्षों में दोनों देशों के रिश्तों में उतार-चढ़ाव देखने को मिला है. कभी भारत का झुकाव ईरान की तरफ़ होता है, तो कभी अमेरिका के पक्ष में और ईरान के ख़िलाफ़.”बुधवार को, महिला अधिकारों के ख़िलाफ़ नीतियों के लिए ईरान को संयुक्त राष्ट्र के महिला अधिकार कमिशन (कमिशन ऑन स्टेटस ऑफ़ वीमेन) से हटाए जाने के अमेरिका के प्रस्ताव पर हुए वोट से भारत ने खुद को अलग कर लिया.ईरान के कुर्दिस्तान प्रांत की 22 वर्षीय महसा अमीनी की पुलिस हिरासत में मौत के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों के ख़िलाफ़ ईरान की कथित दमनकारी कार्रवाई के बाद अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र में ये प्रस्ताव दिया था. इस पर हुई वोटिंग से भारत समेच 16 अन्य देशों ने अपनी दूरी बनाई.चीन और रूस समेत पांच देशों ने ईरान के ख़िलाफ़ वोट का विरोध किया. लेकिन भारत इस वोटिंग से दूर क्यों रहा? क्या भारत ईरान को नाराज़ नहीं करना चाहता था?

मुंबई स्थित थिंक टैंक ‘गेटवे हाउस’ से जुड़े पूर्व राजनयिक मनजीव सिंह पुरी ने बीबीसी हिंदी से कहा कि भारत का ये क़दम उसके अपने हित और अपनी पॉलिसी के तहत था.वे कहते हैं, “भारत का सामान्य रुख़ ये रहता है कि हम आम तौर से किसी एक देश के ख़िलाफ़ प्रस्तावों का समर्थन नहीं करते हैं. भारत का मानना है कि ‘नेमिंग एंड शेमिंग’ किसी समस्या का समाधान नहीं है.”लेकिन एक सवाल ये उठता है कि ईरान के ख़िलाफ़ यूएन में प्रस्ताव अमेरिका ने रखा था, जिसके साथ भारत के रिश्ते काफ़ी मज़बूत हैं. क्या ऐसे में भारत को अमेरिका के प्रस्ताव का समर्थन नहीं करना चाहिए था, ख़ास कर जब ये प्रस्ताव महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे अत्याचारों से संबंधित था?इस पर वोटिंग से अलग रहने का मतलब ये भी निकाला जा सकता है कि भारत ने महिलाओं के अधिकारों पर उठाए मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया.इस पर मनजीव पुरी कहते हैं, “महिला सशक्तिकरण के संबंध में हमारे पास एक मानक है जो किसी से पीछे नहीं है. हम वही करेंगे जो हमारे राष्ट्र हित में होगा.”वहीं एके पाशा कहते हैं कि “चाहे रूस हो, यूक्रेन हो, ईरान हो या इसराइल… भारत अपनी एक स्वतंत्र विदेशी नीति अपनाना चाहता है और कई रणनीतिक मुद्दों पर भारत की स्वतंत्र विदेश नीति दिखती है. लेकिन जो रणनीतिक मामले नहीं होते हैं उनमें भारत सरकार लचकदार रवैया दिखाती है, जिनमें कभी-कभी दोस्त देशों को ख़ुश करने की भी कोशिश की जाती है.”

संयुक्त राष्ट्र एक राजनीतिक प्लेटफार्म

विदेश नीति मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र एक राजनीतिक प्लेटफार्म है और अमेरिका का ईरान के ख़िलाफ़ प्रस्ताव एक राजनितिक प्रस्ताव था. ऐसे में भारत का रुख़ उसकी स्वतंत्र विदेश नीति के हिसाब से तय होगा.वैसे भी इस तरह की वोटिंग के दौरान भारत की अनुपस्थिति असामान्य नहीं है.बीते महीने ही भारत संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) के उस प्रस्ताव पर वोटिंग से दूर रहा, जिसमें 16 सितंबर से शुरू हुए ईरान में प्रदर्शनकारियों पर किए गए कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन और तथ्यों की जांच के लिए एक मिशन स्थापित किया गया.अक्टूबर में भारत संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के एक आपातकालीन विशेष सत्र में यूक्रेन को लेकर रूस के ख़िलाफ़ प्रस्ताव के दौरान वोटिंग पर अनुपस्थित रहा था.ग़ज़ा पट्टी में इसराइल और हमास के बीच 11 दिनों के युद्ध के दौरान कथित उल्लंघनों और अपराधों की जांच शुरू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में एक प्रस्ताव पर हुए मतदान से भी भारत अलग रहा था.

ईरान से आयात की स्थिति

चार साल पहले तक भारत के कुल तेल आयात का 11 प्रतिशत ईरान से सप्लाई होता था. लेकिन 2018 में परमाणु समझौते से बाहर निकलने के अमेरिका के फ़ैसले के बाद ट्रंप प्रशासन के दबाव में भारत सरकार ने ईरान से तेल का आयात बंद कर दिया.ईरान से तेल आयात करने के लिए भारतीय रिफ़ाइनरीज़ की उत्सुकता के बावजूद भारत और ईरान के बीच द्विपक्षीय ऊर्जा संबंध अभी तक बहाल नहीं हुए हैं. यानी एक तरह से देखें तो ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध दोनों देशों के बीच ऊर्जा सहयोग को फिर से शुरू करने में प्राथमिक बाधा बने हुए हैं.अमेरिकी प्रशासन हर उस कंपनी के ख़िलाफ़ प्रतिबंध लगा रहा है जो ईरान के साथ व्यापार कर रही हैं.हाल में अमेरिका ने मुंबई-स्थित पेट्रोकेमिकल ट्रेडिंग फ़र्म ‘तिबालाज़ी पेट्रोकेम लिमिटेड’ पर ये कहकर पाबंदी लगा दी कि ये कंपनी ईरान से तेल लेकर उसे दक्षिण एशिया और पूर्वी एशिया ला रही थी.तेल व्यापार से संबंधित ईरान के साथ व्यापारिक रिश्ते रखने पर अमेरिका द्वारा पहली बार किसी भारतीय कंपनी पर पाबंदी लगाई गई थी.रूस-यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में, भारत ने अमेरिका की चेतावनियों के बावजूद रूस के साथ अपने ऊर्जा संबंधों को जारी रखा है, बल्कि अब भारत रूस से अधिक मात्रा में तेल ख़रीद रहा है.दरअसल, भारत ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों का पालन करने की ग़लती दोहराने से बचना चाहता था. याद रहे कि ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध के बावजूद चीन अब भी ईरान से तेल खरीदता है और यहाँ तक की वो ईरान से तेल आयात बढ़ाकर आर्थिक रूप से इसका फ़ायदा उठा रहा है.तो ऐसा क्यों है कि अमेरिका की पाबंदियों के बावजूद भारत रूस से तेल ख़रीद रहा है लेकिन ईरान से नहीं?पूर्व राजनयिक पुरी कहते हैं कि भारत एक ऐसा देश है जो अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और नियमों का पालन करता है.वे कहते हैं, “रूस के ख़िलाफ़ प्रतिबंध संयुक्त राष्ट्र को स्वीकार नहीं हैं, ये पश्चिमी देशों का लगाया प्रतिबंध है. जबकि ईरान के ख़िलाफ़ प्रतिबंधों को संयुक्त राष्ट्र ने स्वीकृति दी है.”जानकार कहते हैं कि भारत को इस बात पर ग़ौर करना है कि इलाक़े में उभरते नए भू-राजनीतिक समीकरणों का सामना वो कैसे करे.

रिश्ते और बेहतर करने के लिए क्या करेभारत

ईरान इस समय गंभीर आर्थिक संकट से गुज़र रहा है. इससे निपटने और इलाक़े में अपना असर बनाए रखने के लिए ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की सरकार ने अपने क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ संबंधों को गहरा करने और मध्य एशिया में सहयोग बढ़ाने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है.इसके अलावा, चीन और रूस के साथ ईरान की रणनीतिक साझेदारी ने इस क्षेत्र में अमेरिका को चुनौती देने के लिए ईरान को और प्रोत्साहन दिया है.इतना ही नहीं रूस और चीन का समर्थन ईरानी अर्थव्यवस्था और ईरान की क्षेत्रीय मुद्रा शक्ति दोनों के लिए महत्वपूर्ण बना हुआ है.शायद यही वजह है कि भारत ने मध्य पूर्व में एक संतुलित पॉलिसी अपनाई है.हालांकि पश्चिम के साथ ईरान का बढ़ता तनाव और उसके साथ व्यापार करने वाली कंपनियों पर लग रही पाबंदियां, ईरान के साथ सहयोग गहरा करने की भारत की कोशिश में उसके लिए नई चुनौतियां पेश कर सकता है.इन सबके बावजूद, वर्तमान संदर्भ में, भारत और ईरान के व्यापार और कनेक्टिविटी में समान हित हैं और इन क्षेत्रों में सहयोग से दोनों देशों के रिश्ते और बेहतर हो सकते हैं.शंघाई सहयोग संगठन में भारत भी एक सदस्य है. यहां ईरान की पूर्ण सदस्यता दोनों देशों के बीच चाबहार बंदरगाह जैसी कनेक्टिविटी परियोजनाओं पर सहयोग बढ़ा सकता है.