दिल्ली को सुरक्षित बनाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट एवं न्यूयार्क पुलिस विभाग ने मिलकर एक खास योजना बनाई थी। हालांकि इसकी पूरी रिपोर्ट माइक्रोसॉफ्ट ने ही तैयार की थी। दिल्ली पुलिस की ओर से उन्हें जरूरी डाटा मुहैया कराया गया। सुरक्षा की पक्की गारंटी देने वाली ‘डोमेन अवेयरनेस सिस्टम’ (डीएएस) तकनीक का इस्तेमाल न्यूयार्क में हो रहा है। दिल्ली में अगर माइक्रोसॉफ्ट की योजना लागू हो जाती, तो वह दुनिया का ऐसा दूसरा शहर बन जाता। दिल्ली पुलिस के एक टॉप अफसर का कहना है कि विभिन्न एजेंसियों के बीच ठीक से तालमेल न होने के कारण यह योजना जमीन पर नहीं उतर सकी।
सिस्टम के लिए तय हो गया था बजट
बता दें कि दिल्ली पुलिस के तत्कालीन आयुक्त बीएस बस्सी के कार्यकाल के दौरान माइक्रोसॉफ्ट कॉर्पोरेशन ने पुलिस मुख्यालय में इस सिस्टम को लेकर छह-सात घंटे का प्रेजेंटशन दिया था। उसमें स्पेशल सेल, क्राइम ब्रांच, आर्म्ड पुलिस, पीसीआर, जिला पुलिस, विजिलेंस, ट्रैफिक और आतंक रोधी दस्ता आदि शाखाओं के आला अफसर मौजूद रहे। उन्होंने इस नए सिस्टम की बारीकियों के बारे में जाना।
बाद में सभी ज्वाइंट सीपी और डीसीपी को अपने-अपने इलाकों में इस उपकरण की जरूरत और उनकी संख्या बाबत एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने के लिए कहा गया। रिपोर्ट भी तैयार हो गई और दिल्ली पुलिस के अफसरों की एक टीम ने इस सिस्टम को लागू करने जरूरी बजट भी तय कर लिया।
एक हजार करोड़ का खर्च
कुछ दिन बाद इसकी एक रिपोर्ट लेकर दिल्ली पुलिस के अधिकारी विचार विमर्श के लिए गृह मंत्रालय पहुंचे। इस बीच यह चर्चा भी हुई कि दिल्ली सरकार इसमें कुछ आर्थिक मदद कर सकती है। उस वक्त सीसीटीवी को लेकर दिल्ली सरकार भी गंभीरता से काम कर रही थी। एक अधिकारी के मुताबिक, सरकार के साथ बातचीत हुई, लेकिन वह सार्थक नहीं रही। सरकार का कहना था कि वे अपने स्तर पर सीसीटीवी लगाकर दिल्ली को सुरक्षित बनाएंगे। ‘डोमेन अवेयरनेस सिस्टम’ को लागू करने पर करीब एक हजार करोड़ रुपये खर्च होने थे। दिल्ली पुलिस को जब कहीं से भी कोई उम्मीद नजर नहीं आई, तो यह कह कर इस प्रोजेक्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया कि इसका बजट बहुत ज्यादा है।
हम स्थानीय तकनीक की मदद से ही दिल्ली को सुरक्षित बनाएंगे। एक प्रेसवार्ता में बस्सी ने कहा था कि इस सिस्टम को देसी तकनीक पर विकसित करेंगे। अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ। दिल्ली सरकार, सिविक एजेंसियां और पुलिस, इन सभी के लगाए गए कैमरों का कंट्रोल अलग अलग है। किसके कैमरे में कब क्या रिकार्ड हुआ, कुछ नहीं पता। उसे अपराध के साथ कैसे लिंक करें, इन सब के बारे में भी किसी को कोई जानकारी नहीं है।
लगने थे छह हजार सिक्योरिटी कैमरे
इस सिस्टम के तहत दिल्ली में करीब साढ़े छह हजार सिक्योरिटी कैमरे लगने थे। अपराधी चाहे कितना भी शातिर हो, इस सिस्टम की मदद से वह पकड़ा जाता। पीसीआर में डीएएस से लैस कंप्यूटर लगाने का प्रावधान था। बीट कर्मियों को एक ऐसी मोबाइल डिवाइस दी जानी थी, जिसमें वे किसी भी हिस्से की सीसीटीवी फुटेज देख सकते थे। इसके अलावा पुलिस कर्मियों को रेडिएशन की जांच वाला उपकरण भी मुहैया कराया जाता है।
आतंकियों के मंसूबों को समय रहते नाकाम किया जा सकता है। वारदातों की रियल टाइम इंर्फोमेशन हर पुलिस कर्मी तक पहुंचती है। कोई भी अपराधी जैसे ही अपने ठिकाने से बाहर निकलता, वह तुरंत पुलिस गिरफ्त में आ जाता। क्योंकि अपराधी का फोटो सीसीटीवी में आते ही उसकी लोकेशन पुलिस को तुरंत मिल जाती है।
इस तरह काम करता है डीएएस
- सभी पुलिसकर्मी इंट्रेक्टिव डॉटा मैप (डिजिटल) से जुड़े रहते हैं
- सिस्टम में प्रत्येक अपराधी एवं संदिग्धों का फोटो सहित रिकॉर्ड
- शहर में आने वाले हर वाहन की नंबर प्लेट दर्ज होती है
- किसी जगह का रेडिएशन लेवल कितना है, यह डाटा भी पुलिस को मिलता है
- पुलिस कर्मियों के पास रेडिएशन जांच के लिए पोर्टेबल डिवाइस होती है
- मोबाइल या कंट्रोल रूम में एक क्लिक करते ही सामने होगा सारा डाटा
- स्टेडियम, बस स्टैंड, एयरपोर्ट, मेट्रो व रेलवे स्टेशन और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर छोटी से छोटी गतिविधियों पर भी पैनी नजर
- एक जगह पर लगा सिक्योरिटी कैमरा पांच सौ फुट उपर तक जा सकता है
- सेकेंडों में सूचनाओं का बारीकी से आदान-प्रदान
- घटना स्थल पर तैनात पुलिस को मौके की सभी दिशाओं से लाइव स्थिति की जानकारी मिलेगी
- डीएएस में घटना स्थल का वीडियो प्रत्येक पांच मिनट बाद पलटकर आएगा
अफरातफरी एवं गलत सूचना से बचाव
मान लीजिए कि किसी बिल्डिंग में गोलीबारी की घटना हुई है। चारों तरफ से ऐसी कॉल आ रही हैं कि दर्जनों हथियारबंद लोगों ने हमला किया है। मीडिया में भी तरह-तरह की अफवाहें फैल रही हैं। ऐसे मौके पर पुलिस ने कॉल का विश्लेषण करने की बजाए डीएएस का इस्तेमाल कर, उस बिल्डिंग के पास लगे कैमरे को ऊपर उठाकर वारदात वाले स्थान की तरफ मोड़ दिया। इससे उस जगह की सही तस्वीर सामने आ जाती है। पुलिस को तुरंत ये पता लग जाता है कि छत पर केवल एक शूटर छिपा बैठा है या वहां दर्जनों अपराधी हैं।
क्रॉस फायरिंग में कितने अपराधी मारे गए, यह भी कैमरे की मदद से पता लगाया जा सकता है। कंट्रोल रूम में एक बड़ी स्क्रीन पर घटना स्थल एवं उसके आसपास के 15 स्थानों का लाइव वीडियो देखने की सुविधा होती है। यह भी पता चल जाता है कि अपराधी किस तरफ भाग रहा है और उसके साथी कहीं छिपे तो नहीं है।
अपराधी का बचना मुश्किल
इस सिस्टम की खासियत यह भी है कि इसकी मदद से अपराधी बच नहीं सकता। उसका फोटो या स्कैच डीएएस पर डालते ही शहर के हर पुलिसकर्मी तक वह जानकारी पहुंच जाती है। यदि वह अपराधी कहीं भी जाएगा, तो उसका फोटो उसे सलाखों तक पहुंचा देगा। एक बार सड़क पर आने के बाद वह किसी भी सूरत में बच नहीं सकेगा। बम विस्फोट की फर्जी कॉल करने वाले भी पुलिस को चकमा नहीं दे पाएंगे। इस तरह की कॉल आते ही सेकेंड में लोकेशन का पता चल जाएगा।
इतना ही नहीं, वहां की एक-दो दिन की वीडियो रिकॉर्डिंग भी मिलेगी। जिस नंबर से आपातकालीन कॉल आई है, उस नंबर का पिछले कई दिनों का डाटा शहर के सभी पुलिसकर्मियों को मिल जाएगा।
लापरवाह वाहन चालकों को भी सबक
शहर में प्रत्येक वाहन का रिकॉर्ड डीएएस पर होगा। ट्रैफिक पुलिस तय रफ्तार के हिसाब से वाहनों का रिकॉर्ड सिस्टम में डाल देगी। स्कूल या मार्केट के आसपास के हाई क्रैश जोन में लापरवाह चालकों पर अंकुश लग सकेगा। लापरवाही से वाहन चलाने वालों के घर पर चालान पहुंच जाता है।
न्यूयार्क में तीन हजार हाई सिक्योरिटी कैमरे
करीब नौ साल पहले माइक्रोसॉफ्ट ने न्यूयार्क पुलिस विभाग से डीएएस बाबत संपर्क किया था। वहां के अनुभवी पुलिस अफसरों ने डीएएस में कई तरह के सुधार कर दिए। वारदात, अपराधियों की जमीनी हकीकत, उनके तौर-तरीके, भागना-छिपना, वाहन का इस्तेमाल और हथियारों से हमला आदि बातों का व्यावहारिक अनुभव पुलिस अफसरों के पास था। नतीजा, माइक्रोसॉफ्ट ने न्यूयार्क पुलिस को इस प्रोजेक्ट में अपना साझेदार बना लिया।
तय हुआ कि दुनिया में कहीं भी जब इस सिस्टम को लागू किया जाएगा, तो उससे मिलने वाले राजस्व का तीस फीसदी हिस्सा न्यूयार्क पुलिस को मिलेगा। माइक्रोसॉफ्ट ने न्यूयार्क में तीन हजार हाई सिक्योरिटी कैमरे लगाए हैं, और करीब 34 हजार पुलिस अफसर डीएएस से जुड़े हैं।